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________________ जीवाभिगमसूत्रे माणवचनैराशीर्वचांस्यवादिषुः, 'जयजयनंदा जयजयभदा' हे नन्द ! जयजय, हे भद्र ! जयजय 'जयजयनंदभदा' हे नन्दभद्र ! जयजय, 'अजियं जिणेहि जितं पालयाहि'-अजितं वशमानय जितं च पालय, 'अजितं जिणेहि सत्तुपक्खं पालेहि मित्तपक्खं जियमज्ञवसाहि तं देव'-अजितं विजयस्व शत्रुपक्षं जितं पालय, मित्रपक्षं जितमध्ये वासय त्वं देव ! 'निरुवसग्गं इंदो इव देवाणं-चंदो इव ताराणं' -निरुपसर्ग-यथास्यात् विहरेति-अग्रिमेण सम्बन्धः संबद्धः, देवानामिन्द्र इवचन्द्रइव ताराणाम् 'चमरोइव असुराणं'-असुराणां चमर इव, धरणो इव नागाणं'नागानां मध्ये धरणइव, 'भरहोइव मणुयाणं'-मनुजानां मध्ये भरतइव, 'बहूणि पलियोवमाई बहूणि सागरोवमाणि'-बहूनि पल्योपमानि यावद् बहूनि सागरोपमाणि ऐसा कहा 'जय जय नंदा जय जय भद्दा' हे नन्द आपकी जय हो जय हो हे भद्र आपकी जय हो जय हो 'जय जय गंदभद्दा ! हे नन्द भद्र ! आपकी बार बार जय हो 'अजियं जिणेहि जितं पालयाहि आप अजित को वश में करें और जितेका पालन करें 'अजितं जिणेहि सत्तुपक्खं, पालेहि मित्तपक्खं' अजित-शत्रुपक्ष को आप वश में करें और मित्र पक्ष का आप पालनपोषण एवं रक्षण करें। 'जियमज्झे वसाहि (तं दव) हे देव तुम जित पक्ष में अपने मित्र को वसाओ 'निरूवसग्गो इंदो इव देवाणं चंदो इव ताराणां' देवों के बीच में इन्द्र की तरह तारागणों के बीच में चन्द्र की तरह तुम निरूपसर्ग होकर विचरो इसी तरह तुम असुरों में चमर की तरह ‘धरणो इव नागाणं' नागों में धरण की तरह 'भरहो इव मणुयाणं' मनुष्यों में भरत की तरह निरूपसर्ग होकर કરીને અને તે અંજલીને માથા પર ફેરવીને આશીર્વાદ રૂપે તેઓને આ પ્રમાણે ४ह्यु 'जयजय नंदा जयजय भद्दा' हुन तमा। राय थान्य थाया है मद्र तमा। य थामेराय थायो 'जयजय गंदा भद्दा' 3 नन्द सद्र तभा पार पा२ १५ १५४२ था। 'अजियं जिणेहि जितं पालयाहि' २।५ અછત-નહીં જીતાયેલાઓને વશ કરે અને જીતેલાઓનું પાલન પોષણ કરે. 'अजितं जिणेहि सत्तुपक्ख, पालेहि मित्तपक्खं' नही पाये। शत्रुपक्षने पश ४।-तो मने भित्र पक्षनु पालन ४२।-२क्षण ४२१. 'जियमज्झे वसाहि (तं देव) हे देव मा५ छत पक्षमा तमा। भित्रीने साव। निरुवसग्गो इंदोइव देवाणं, चंदोइव ताराणं' हेवामा छन्द्र प्रमाणे अने ता२. गोमा नीम मा५ नि३५सा मनीन विय२९१ ४२. तेभ०४ २५सुरेशमा यन्द्रनी में 'घरणो इव नागाणं' नावामा ५२णेन्द्रनी म 'भरहोइव मणुयाणं' भनुष्यामां भरतनी २भ मा५ नि३५सग मनीन विय२) ४२१. २।५ 'बहूणि पलियोवमाई बहूणि જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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