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________________ १४९४ जीवाभिगमसूत्रे भगवानाह - 'गोयमा ! जहन्येणं अंतोमुहुतं उक्कोसेणं छावद्वि सागरोवमा साइरेगाई' गौतम ! जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षेण पटू षष्टिः सागरोपमाणि सातिरेकाणि 'एवं सुयनाणी वि' श्रुतज्ञान्यपि बोध्यः । ' ओहिनाणी णं भंते !' अवधिज्ञानी खलु भदन्त ! 'जहन्नेणं एवं समयं उक्कोसेणं छावद्वि सागरोवमाई साइरेगाइ " एकं समयं जघन्येन सातिरेकसागरोपमाणि षट् षष्टिरुत्कर्षेण । 'मणपज्जवनाणी णं भंते ०' मनःपर्यवज्ञानी खलु भदन्त ० गौतम ! जहन्नेणं एगं समयं -उक्कोसेणं - निबोधिकज्ञानी आभिनिबोधिकज्ञानी रूप से कितने काल तक रहता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'गोयमा ! जन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोकेणं छावहिं सागरोवमाई सातिरेगाई' हे गौतम ! आभिनिबोधिक ज्ञानी आभिनिबोधिक रूप से कम से कम एक अन्तर्मुहूर्त तक रहता है और अधिक से अधिक कुछ अधिक ६६ सागरोपम काल तक रहता हैं । ' एवं सुयनाणी वि' इसी प्रकार से श्रुतज्ञानी भी श्रुतज्ञानी रूप से कम से कम एक अन्तर्मुहूर्त तक और अधिक से अधिक कुछ अधिक ६६ सागरोपम काल तक रहता है 'ओहिनाणी णं भते ! हे भदन्त ! अवधिज्ञानी अवधिज्ञानी रूप से कितने काल तक रहता हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं- हे गौतम ! अवधिज्ञानी अवधिज्ञानी रूप से 'जह० एक्कं समयं उक्कोसेणं छावट्ठि सागरोवमाई सातिरेगाई' कम से कम एक समय तक और अधिक से अधिक कुछ अधिक ६६ सागरोपम काल तक रहता हैं । 'मणपज्जवनाणी णं भंते !' हे भदन्त ! પન્ત રહી શકે છે ? આ प्रश्नना उत्तरमां प्रभुश्री हे छे - 'गोयमा ! जहणे अतोमुत्तं उक्कोसेण छावट्ठि सागरोवमाई सातिरेगाई' हे गौतम ! આભિનિષેાધિકજ્ઞાની આભિનિષેાધિકજ્ઞાનીપણાથી ઓછામાં ઓછા એક અંતર્મુહૂ પન્ત રહે છે. અને વધારેમાં વધારે કંઇક વધારે ૬૬ છાસઠે सागरोषभ ाण सुधी रहे छे. 'एवं सुयनाणी वि' ४ प्रमाणे श्रुतज्ञानी पशु શ્રુતજ્ઞાનો પણાથી ઓછામાં એછા એક અંતર્મુહૂ પન્ત અને વધારેમાં पधारे ४६४ वधारे ६६ छासः सागरोपम आज पर्यन्त रहे छे. 'ओहिनाणी णं भंते !' हे भगवन् ! अवधिज्ञानी अवधिज्ञानीपणाथी डेटला आज पर्यन्त રહે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે-હે ગૌતમ ! અવધિજ્ઞાની अवधिज्ञानीपणार्थी 'जहणेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं छावट्ठि सागरोवमाई' सोछामां એછા એક સમય પન્ત અને વધારેમાં વધારે કઇંક વધારે દર્દ છાસઠ सागरोपमाण पर्यन्त रहे छे. 'मणपज्जवणाणीणं भंते !' डे लगवन् ! भनः જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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