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________________ १४०६ जीवाभिगमसूत्रे पर्याप्तक नो अपर्याप्तकः सादिकोऽपर्यवसितः उभय प्रतिषेधवर्ती सिद्धः स च सादिरपर्यवसित एवेति । अथेषामन्तरम् ‘पज्जत्तगस्स अंतरं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं' पर्याप्तकस्य खलु भदन्त ! किम् ? गौतम ! उभाभ्याम न्तर्मुहूर्तम् अपर्याप्तककाल एव हि पर्याप्तकस्य अन्तरम्, अपर्याप्तकालश्च जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहूर्तम् , 'अपजत्तगस्स जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं-उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेग' अपर्याप्तकस्यान्तर्मुहूर्तम् सातिरेकसागरोपमशतपृथक्त्वं गौतम ! उभाभ्यां जघन्योत्कृष्टाभ्यां विद्धि । 'तइयस्स णत्थि अंतरं' तृतीयस्य नास्त्यन्तरं नो पर्याप्तक नो अपर्याप्तकस्य । 'अप्पाबहु०' सिद्ध जीव है उसका उस रूप से रहने का काल सादि अपर्यवसित है क्योंकि नो पर्याप्तक नो अपर्याप्तक सिद्ध ही होते हैं । ____ अन्तर कथन-'पज्जत्तगस्स अंतरंजहन्नेणं अंतोमुहुत्त उक्कोसेणं अंतोमु०' हे भदन्त ! पर्याप्तक का अन्तर कितना है ? उत्तर में प्रभु कहते है हे गौतम ! पर्याप्तक का अन्तर जघन्य और उत्कृष्ट से एक एक अन्तर्मुहूर्त का ही है क्योंकि अपर्याप्तक का काल ही पर्याप्तक का अन्तर होता है । 'अपज्जत्तगस्स जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सागरोपमसयपुहुत्तं साइरेगं' हे भदन्त ! अपर्याप्तक का अन्तर कितना है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-हे गौतम ! अपर्याप्तक का अन्तर जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त का है और उत्कृष्ट से कुछ अधिक सागरोपमशत पृथक्त्व का है । क्योंकि पर्याप्तक का काल जघन्य और उत्कृष्ट से इतना ही कहा गया है। 'तइयस्स नत्थि अंतरं नो पर्याજે નો પર્યાપ્તક અને ને અપર્યાપ્તક સિદ્ધ જીવ છે તેઓને તે રૂપે રહેવાને કાળ સાદિ અપર્યાવસિત છે કેમકે–ને પર્યાપ્તક ને અપર્યાપ્તક સિદ્ધ જ હોય છે. मतारनु ४थन । 'पज्जत्तगस्स अंतरं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं' हे भगवन् ! પર્યાપ્તકનો અંતરકાળ કેટલું હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે-હે ગૌતમ! પર્યાપ્તકનું અંતર જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટથી એક એક અંતર્મુહૂર્તનું જ છે. भ-अपर्यापन ४०१ पर्याप्सनु मत२ डाय छे. 'अपज्जत्तगास जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं संगरोवमसयपुहुत्तं साइरेग' हु सावन् ! २५पर्याप्तीन અંતર કેટલું હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે હે ગૌતમ ! અપર્યાપ્તકોનું અંતર જઘન્યથી એક અંતમુહૂર્તનું અને ઉત્કૃષ્ટથી કંઈક વધારે સાગરોપમશત પૃથફત્વનું છે. કેમકે–પર્યાપ્તકને કાળ જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટથી मेटा अपामा मावेश छ. 'तइयस्स नत्थि अंतरं' त्री न पर्यात જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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