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________________ १३४० जीवाभिगमसूत्रे श्रेणि समाप्तौ भवक्षयादपान्तराले मरणतो वा प्रतिपततो वेदोदये पुनः सवेदकत्वोपपत्तेः । ' तत्थ णं जे से सादीए सपज्जबसिए' तत्र खलु तेषु त्रिषु सवेदकः सादि सपर्यवसितः 'से जहनेणं अंतोमुहतं तस्य सादि सपर्यवसितसवेदकस्य जघ न्येनाऽन्तर्मुहूर्तमन्तरम् श्रेणिसमाप्तौ सवेदकत्वे सति पुनरन्तर्मुहूर्तेन श्रेणिप्रतिपत्तौ - अवेदकत्त्व भावात्, अत्राह कश्चित् किमेकस्मिन् जन्मनि वेलाद्वयमुपशमश्रेणी लाभो भवति ? यदेवमुच्यते, सत्यम् - एतद्भवति उक्तञ्च - ' नैकस्मिन् जन्मनि उपशमश्रेणिः क्षपकश्रेणिश्च जायते' उपशमश्रेणि द्वयन्तु जायत एवेति, तत एवमुपपद्यते जघन्येनाऽन्तर्मुहूर्तम् । 'उक्कोसेणं अनंतं कालं' उत्कर्षेणानन्तकालम् उपशमश्रेणि की प्राप्ति से वेद का उपशमन कर लिया है और उसके उत्तर काल में अवेदकत्व का अनुभवन करके उस श्रेणि से पतित होने पर पुनः वेदोदय वाला बन गया है 'तत्थणं जे से सादीए सपज्जवसिए से जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं' ऐसे उस सादि सपर्यवसित सवेदक जीव की कायस्थिति का काल जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त का है क्योंकि ऐसा वह जीव एक अन्तर्मुहूर्त तक सवेदक बन कर पुनः उपशमश्रेणि का लाभ करने पर अवेदक बन जाता है यहां ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये कि 'क्या एक जन्म में दो बार उपशम श्रेणि का लाभ जीव को होता है 'क्योंकि एक जन्म में उपशम श्रेणि का लाभ जीव को दो वार तक हो जाता है हां ऐसा तो होता है कि एक जन्म में उपशमश्रेणि और क्षपक श्रेणि इन दो का लाभ नही होता है पर एक जन्म में दो बार उपशम श्रेणि का लाभ हो जाता है । अतः इस अपेक्षा सादि सपर्यवसित सवेदक जीव की काय અને તેના ઉત્તરકાળમાં અવેદક પણાના અનુભવ કરીને એ શ્રેણીથી પતિત थया पछी इरीथी वेहोहयवाणी मनी लय छे; 'तत्थणं जे से सादीए सपज्जसिए से जहणेण अतो मुहुत्त' मेवा ते साहि सपर्यवसित सवे भुवनी अयस्थिति ને કાળ જઘન્યથી એક અંતર્મુહૂતના છે કેમકે એવા તે જીવ એક અતહૂત સુધી સવેદક બનીને ફરીથી ઉપશમ શ્રેણીના લાભ કરવાથી અવેદક ખની જાય છે; અહીયાં એવી શંકા કરવી ન જોઇએ –કે શુ એક જન્મમાં એ વાર ઉપશમ શ્રેણીના લાભ જીવને થાય છે ? કેમકે એક જન્મમાં ઉપશમ શ્રેણીના લાભ જીવને બે વાર સુધી થઇ જાય છે; હા એવું તા થતું નથી કે એક જન્મમાં ઉપશમ શ્રેણી અને ક્ષેપક શ્રેણી એ બેનેા લાભ થતા નથી. પરંતુ એક જન્મમાં બે વાર ઉપશમ શ્રેણીના લાલ થઇ જાય છે, તેથી આ અપેક્ષાથી સાદિ સપ વસિત સવૈદક જીવની કાયસ્થિતિના કાળ જઘન્યથી એક જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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