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________________ जीवाभिगमसूत्रे सलेश्याः कृष्णनीलादि लेश्यावन्तश्चैव लेश्यारहिताश्चैव व्याख्येयाः तथा-सशरीराश्चैव अशरीराश्चैव, 'संचिट्ठणं अंतरं अप्पा बहुयं जहा सईदियाणं' सकायिकादारभ्याऽशरीरान्तभेदभिन्नानां सर्वेषां संचिट्ठणं कायस्थिति:- अन्तरम् अल्पबहुत्वं च ज्ञातव्यं सेन्द्रियवत् । 'अहवा-दुविहा सव्वजीवा पन्नत्ता तं जहा सवेयगा चेव अवेयगा चेव । सवेयए णं भंते ! सवेयए त्ति कालओ केवच्चिरं०' अथवा पक्षान्तरे द्विविधाः सर्वजीवाः तद्यथा-सवेदकाश्चैवाऽवेदकाश्चैव तत्र भदन्त ! सवेदकः सवेदक इति रूपेण कालतः खलु कियच्चिरं भवति ? भगवानाह-'गोयमा ! सवेयए तिविहे पन्नत्ते, तं जहा-अणाईए अपज्जवसिए जीव दो प्रकार के होते हैं इनमें जो कृष्ण नील आदि लेश्याओं से युक्त होते हैं वे सलेश्य जीव हैं और जो इनसे हीन होते हैं वे अलेश्य जीव हैं । इनके सम्बन्ध में 'संचिट्ठणं अंतरं अप्पा बहुगं जहा सइंदियाणं' कायस्थिति का कथन अन्तर कथन एवं अल्पबहुत्व का कथन सेन्द्रिय जीवों के प्रकरण की तरह ही जानना चाहिये । तथा ये सब प्रकरण कथन समस्त जीव दो प्रकार के हैं एक 'ससरीरा चेव असरीरा चेव' शरीर सहित और एक शरीर रहित यहां तक के प्रकरण तक कहा गया जानना चाहिये 'अहवा-दुविहा सव्व जीवा पण्णत्ता' अथवा समस्त जीव दो प्रकार के इस प्रकार से भी कहे गये है-'तं जहा' जैसे 'सवेदगा चेव अवेदगा चेव' एक सवेदक और और अवेदक 'सवेदएणं भंते ! कालओ केवच्चिरं होइ' हे भदन्त ! सवेदक जीवों की कायस्थिति कितनी कही गई है । इसके उत्तर में प्रभु कहते है-'गोयमा ! सवेदए तिविहे पन्नत्ते' हे गौतम ! सवेदक તેમાં જેઓ કૃષ્ણ નીલ વિગેરે લેશ્યાથી યુક્ત હોય છે. તેઓ સલેશ્ય જીવ છે અને તેનાથી જે રહિત હોય તેઓ અલેશ્ય છવ છે. તેઓના સંબંધમાં 'संचिढणं अंतरं अप्पा बहुगं जहा संइदियाणं' यस्थितिनु ४थन, मत२नु કથન, અને અલ્પ બહત્વનું કથન સેંદ્રિય જીવોના પ્રકરણ પ્રમાણેજ સમજી લેવું, તથા તે તમામ પ્રકરણનું કથન “સઘળા બે પ્રકારના છે, એક 'ससरीरा चेव असरीरा चेव' शरी२ सहित मन से शरी२ २हित मा ४थन सुधीना प्र४२२नु ४थन ४३ छ तेम सभा 'अहवा दुविहा सव्व जीवा पण्णत्ता' अथवा सघणा । ये ४॥२॥ मारीत थाय छ-भ-'सवेदगा चेव अवेदगा चेव' से सव४ मने मी २६४ 'सवेदएणं भंते ! कालओ केवच्चिरं होई' हुलापन सह सयोनी स्थिति सी पाभा मावत छ ? सा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री हे छ -'गोयमा ! सवेदए तिविहे જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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