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________________ १३३२ जीवाभिगमसूत्रे ___ अर्थ भावः-यस्मादयं सादिरपर्यवसितस्तस्मात्कारणान्नास्ति अन्तरम् अन्यथाऽपर्यवसितत्वं न स्यात् इति । 'असिद्धस्स णं भंते ! केवइयं अंतरं होइ' असिद्धस्य खलु भदन्त ! कियत् कालमन्तरं भवति ! 'गोयमा ! अणादियस्स अपज्जवसियस्स नत्थि अंतरं' अनादिकस्याऽपर्यवसितस्याऽसिद्धस्याऽन्तरं नास्ति, गौतम ! अपर्यवसितत्वादेवाऽसिद्धवस्याऽप्रच्युतेः । 'अणादियस्स सपज्जवसियस्स नस्थि अंतरं' अनादिकालस्य सपर्यवसितस्याऽप्यन्तरं नास्ति पुनरप्यसिद्धत्वाऽयोगात् इति । अन्तर तो सपर्यवसित होने में होता है यहां सपर्यवसितता है नहीं यदि यहां पर भी अन्तर होने लगे तो वहां अपर्यवसितता नहीं आ सकेगी 'असिद्धस्सणं भंते ! केवइयं अंतरं होइ' हे भदन्त ! असिद्ध जीव का अन्तर कितने काल का होता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'अणादियस्स अपज्जवसियस्स नथि अंतरं' हे गौतम ! जो जीव अनादि अपर्यवसित है उसके भी अन्तर नहीं होता है क्योंकि वह तो अनादि काल से ही असिद्ध है और अनन्त काल तक असिद्ध रहेगा फिर इसकी असिद्धावस्था छूटने का प्रश्न नहीं होता है 'अणादियस्स सपज्जवसियस्स नत्थि अंतरं' परन्तु जो जीव अनादि काल से असिद्ध चला आ रहा है परन्तु यह उसकी असिद्धता अनन्त काल तक रहने वाली नहीं है तो ऐसे जीव का भी अन्तर नहीं होता है। अब इनके अल्पबहुत्व का कथन इस प्रकार से है-'एएसिणं भंते ! सिद्धाणं असिद्धाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा' અપર્યવસિત જીવ છે, તેને અંતર હોતું નથી. કેમકે અંતરતો સપર્યવસિત હવામાં હોય છે. અહીંયાં સપર્યાસિતપણું છે જ નહીં જે અહીંયાં પણ मत२ २१। साये तो त्यां म५ सितपासनी श नही 'असिद्धस्स गं भंते ! केवइयं अंतरं होई' हे मावन् मसिद्ध अनुमत२ ८६॥ नुहाय छ? सा प्रश्नन। उत्तरमा प्रसुश्री ४ छ, 'अणादियस्स अपज्जवसियस्स नत्थि अंतर' गौतम! मनाम सित छ, तेने ५ तर हातुनथी. કેમકે તે તે અનાદિકાળથી જ અસિદ્ધ છે. અને અનંતકાળ સુધી અસિદ્ધ રહેશે ५७. तनी मसिद्ध अवस्था छूट पानी प्रश्न होतो नथी. 'अणादियरस सपज्जवसियस्स नत्थि अंतरं' ५२तु १ मनाहि थी मसिद्ध डाय छे. પરંતુ આ તેની અસિદ્ધતા અનંત કાળ સુધી રહેવાવાળી હોતી નથી. તે એવા જીવનું અંતર પણ હેતું નથી. है तमना भ६५ महुपयानु ४थन ४२वाभा यावे छे. 'एएसि णं भंते ! सिद्धाणं असिद्धाणय कयरे कयरेहिं तो ! अप्पा वा बहुया वा' है सावन सिद्ध જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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