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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.९ सू.१३९ दशविध सं० स० जीवनिरूपणम् १३२१ ततोऽपि च प्रथमसमयैकेन्द्रिया विशेषाधिकाः द्वि-इन्द्रियादिभ्य उद्वत्यैकेन्द्रियत्वेनोत्पन्नाः पूर्वपूवभ्यो विशेषाधिका एव नाऽसंख्येयाः न वाऽनन्तगुणाः इति । ‘एवं अपढमसमययिका वि' एवमप्रथमसमयिका अपि ज्ञातव्याः। तथाहि सर्वस्तोका अप्रथमसमय पश्चेन्द्रियाः ततोऽप्रथमसमय चतुरिन्द्रिया विशेषाधिकाः ततोऽप्रथमसमय त्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः ततोऽप्रथमसमय द्वीन्द्रिया विशेषाधिकार ततोऽप्रथम समयैकेन्द्रिया अनन्तगुणाः वनस्पति जीवाऽनन्तत्वात् । तदेवाह-'णवरं अपढमसम एगिदिया अणंतगुणा' नवरम्-अप्रथमसमयैकेन्द्रिया अनन्तगुणा इति । अपेक्षा बहुत ही अधिक मात्रा में होता है 'पढमसमय एगिदिया विसेसाहिया' इनकी अपेक्षा प्रथम समयवर्ती जो एकेन्द्रिय जीव हैं हैं वे विशेषाधिक हैं क्योंकि ऐसे एकेन्द्रिय जीवों का उत्पाद एक समय में इनकी अपेक्षा बहुत ही अधिकाधिक होता है। क्योंकि द्वीन्द्रियादिक जोवों की पर्याय को छोडकर एकेन्द्रिय रूप से उत्पन्न हुए जीव पूर्व पूर्व की अपेक्षा विशेषाधिक ही होते हैं । असंख्यात या अनन्तगुणं नहीं होते हैं 'एवं अपढमसमयका वि' इसी तरह से अप्रथम समयवर्ती जीव भी जानना चाहिये तथा च-सब से कम अप्रथमसमयी पञ्चेन्द्रिय जीव हैं इनकी अपेक्षा अप्रथमसमयवर्ती चौडतिय जीव विशेषाधिक हैं इनकी अपेक्षा अप्रथम समयवर्ती तेइन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं इनकी अपेक्षा प्रथमसमयवर्ती दो इन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं इनकी अपेक्षा अप्रथम समयवर्ती एकेन्द्रिय जीव अनन्तगुणे अधिक हैं। क्योंकि वनस्पति जीव अनन्तगुणें कहे જીવે છે તે વિશેષાધિક છે. કેમકે એવા એકેન્દ્રિય છે ઉત્પાત એક સમયમાં તેના કરતાં ઘણેજ અધિકાધિક થાય છે. કેમકે દ્વીન્દ્રિય વિગરના પર્યાયને છોડીને એકેન્દ્રિય પણુથી ઉત્પન્ન થયેલા છેપહેલાં પહેલાના કરતાં विशेषाधित थाय छ, मसच्यात , मन त यता नथी. 'एवं अपढम समयकावि' से प्रभारी मप्रथम समयवती'वाना समयमा ५ सभा જેમકે સૌથી ઓછા અપ્રથમસમયવતી પંચેન્દ્રિય જીવે છે. તેના કરતાં અપ્રથમસમયવતી ચૌઈદ્રિય જી વિશેષાધિક છે. તેના કરતાં અપ્રથમ સમયવતી ત્રણ ઈદ્રિયવાળા જી વિશેષાધિક છે. તેના કરતાં અપ્રથમ સમય વતી બે ઇંદ્રિયવાળા જી વિશેષાધિક છે. તેના કરતાં અપ્રથમસમયવતી એક ઈદ્રિયવાળા જ અનંતગણું વધારે છે. કેમકે વનસ્પતિ જીવ અનંત । वामां आवे छे. मे पात 'णवर अपढमसमयएगिदिया अणंत गुणा' 20 सूत्र द्वारा प्रगट ४२ छे. जी० १६६ જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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