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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.७ सू. १३७ अष्टविध सं० स० जीवनिरूपणम् १३०१ प्रथमसमयनैरयिकतिर्यग्योनिकमनुष्यदेवानां कतरेभ्यः कतरेऽल्पा वा० ? भगवानाह-गौतम ! 'सव्वत्थोवा पढमसमयमणुस्सा' प्रथमसमयमनुष्याः सर्वस्तोकाः एकस्मिन् संख्यातीतानामपि स्तोकानामेवोत्पादात् । 'अपढमसमयमणुस्सा असंखेजगुणा' तेभ्यः अप्रथमसमयमनुष्या असंख्येयगुणाः चिरकालावस्थायितयाऽतिप्रभूतत्वेन लभ्यमानात् 'पढमसमयनेरइया असंखेजगुणा' पढमसमयदेवा असंखेज्जगुणा' तेभ्यः प्रथमसमयनैरयिका असंख्येयगुणाः तेभ्यो ___ अब गौतम ! प्रभु से इनके समुदाय को लेकर अल्पबहुत्व आदि को पूछते है । हे भदन्त ! प्रथम समयवर्ती अप्रथम समयवर्ती तिर्यग्योनिक आदि जीवों में कौन किनकी अपेक्षा अल्पत्वादि विशेषण वाले हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-हे गौतम ! 'सव्वत्थोवा पढमसमय मणुस्सा' सब से कम प्रथम समयवर्ती मनुष्य हैं क्योंकि प्रथम समय में ऐसे मनुष्य कम ही उत्पन्न होते है जो संख्यातीत हो ।'अपढमसमय' अप्रथम समयवर्ती जो मनुष्य हैं वे असंख्यातगुणे अधिक हैं क्योंकि अप्रथम समय में जो मनुष्य होते हैं वे चिरकालावस्थायी होने के कारण बहुत अधिक पाये जाते हैं । इनकी अपेक्षा अप्रथम समयवर्ती नैरयिक असंख्यातगुणे अधिक हैं क्योंकि एक समय में भी बहुत अधिक नारक जीवों का उत्पाद हो सकता है इनकी अपेक्षा प्रथम समयवर्ती देव असंख्यातगुणे अधिक हैं । क्योंकि व्यन्तर ज्योतिष्क देवों का एक भी समय में प्रचुरता से कदाचित् उत्पाद हो सकता है । इनकी अपेक्षा प्रथम समयवर्ती तिर्यग्योनिक जीव असंख्यातगुणे વિગેરે સંબંધી પ્રશ્ન કરે છે. કે હે ભગવન્ પ્રથમ સમયવતી અપ્રમથ સમયવતી તિર્યનિક વિગેરે માં કણ કેના કરતાં અલ્પ વિગેરે વિશેपा ॥ छ ? २मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४९ छ -3 गौतम ! 'सव्वत्थो. वा पढमसमयमणुस्सा' सौथी गछ। प्रथम समयवती मनुष्यो छे, उभ-प्रथम સમયમાં એવા મનુષ્ય થડાજ ઉત્પન્ન થાય છે. કે જે સંખ્યાતીત હોય છે. 'अपढमसमय' २५प्रथम समयवती मनुष्य छ, तमे। मसंन्यात पधारे છે. કેમકે-અપ્રથમ સમયમાં જે મનુષ્ય હોય છે તેઓ ચિરકાલાવસ્થાયી હોવાના કારણે ઘણા વધારે મળી આવે છે. તેના કરતાં અપ્રથમ સમયવતી નરયિક અસંખ્યાતગણું વધારે છે. કેમકે-વ્યન્તર અને જ્યોતિષ્ક દેને ઉત્પાત એક સમયમાં કદાચ પ્રચુરતા થી થઈ શકે છે તેના કરતાં પ્રથમ સમય વતી તિર્યનિક જીવ અસંખ્યાતગણું વધારે છે. કેમકે–તેમને ઉત્પાત જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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