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________________ १२८० जीवाभिगमसूत्रे ऽष्टमभवे देवकुर्वादिषु उत्पन्नाया द्रष्टव्यानि । 'एवं मणुसस्स मणुस्सीए वि' एवं मनुष्यस्य मनुष्याश्च भवस्थितिः । देवस्य देव्याश्च भवस्थितिः कायस्थित्या तुल्या, देवस्य देव्याश्च मृत्वाऽनन्तरं तद्भवेनोत्पादाभावात् । ____अथ एतेषामनन्तरम्-'नेरइयस्स णं भंते !' नैरयिकस्य खलु भदन्त ! नरकादुवृत्य पुनर्नरकत्वप्राप्तावन्तरं कियत् ? गौतम ! 'नेरइयस्स अंतरं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो' जघन्येनान्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षेण वनस्पतिकालः तिर्यग्मनुष्यगर्भे एवाशुभाऽध्यवसायेन मरणात् । 'एवं सव्वाणं तिरिक्खआदिकों में इनके उत्पन्न हो जाने की अपेक्षा से कहा गया है. 'एवं मणुस्सस्स मणुस्सीए वि' इसी प्रकार से मनुष्य और मानवी इनकी कायस्थिति का काल है देव और देवियों की जो भवस्थिति का काल है वही उनकी कायस्थिति का काल है___ अन्तर कथन-'णेरइस्सणं भंते !' हे भदन्त ! नैरयिक पर्याय छोडने के बाद पुनः नैरयिक पर्याय को प्राप्त करने के लिये व्यवधान कितने काल का पडता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'नेरइयस्स अंतरं जह ० अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो' हे गौतम ! नैरयिक पर्याय से उद्धृत हुए जीव को पुनः नैरयिक पर्याय की प्राप्ति करने में अन्तर जघन्य से तो एक अन्तर्मुहूर्त का पडता है और उत्कृष्ट से अन्तर वनस्पतिकाल प्रमाण पडता है। एक अन्तमहत का अन्तर जघन्य से उस समय पडता है कि जब वह जीव नरक से उद्वृत्त हो कर तिर्यश्च या मनुष्य के गर्भ में आकर वहीं Sपात ७ पानी अपेक्षाथी उवामां आवे छे. 'एवं मणुस्सस्स मणुस्सीए વિ' એજ પ્રમાણે મનુષ્ય અને મનુષ્ય સ્ત્રીની કાયસ્થિતિને કાળ છે. દેવ દેવિયેની ભવસ્થિતિને જે કાળ છે. એજ એમની કાયસ્થિતિને કાળ છે. હવે અંતરનું કથન કરવામાં આવે છે. 'णेरइयस्सणं भंते ! के भगवन् ! नै२५४ पर्याय छ।उया ५छी शथी નૈરયિક પર્યાયને મેળવવા માટે કેટલા કાળનું અંતર–વ્યવધાન પડે છે? આ प्रश्नना उत्तरमा प्रमुश्री ४१ छ है-'नेरइयरस अंतरं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणसह कालो' हे गौतम ! नै२यि पर्यायथा नासा ने शनी नै२थि પર્યાયની પ્રાપ્તિ કરવામાં અંતર જઘન્યથી તે એક અંતમુહૂર્તનું છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી વનસ્પતિકાળ પ્રમાણનું અંતર પડે છે. એક અંતમુહૂર્તનું અંતર જઘન્યથી એ સમયે પડે છે કે-જ્યારે એ જીવ નરકથી નીકળીને તિર્યંચ અને મનુષ્યના ગર્ભમાં આવીને ત્યાંજ અશુભ અધ્યવસાયથી મરી જાય છે. જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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