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प्रमेयद्योतिका टीका प्र.४ सू.१२६ पञ्चविधसंसारसमापन्नकजीवनि० ११५१ प्रक्रियोत्तरम् 'अपज्जत्तगाणं एवं चेव' अपर्याप्तकैकेन्द्रियादि पञ्चेन्द्रियान्तानामेवमेवाऽप्तरं ज्ञातव्यम् । आलापकप्रकारस्त्वेवम्-'एगिदिय अपज्जत्तगस्सणं भंते ! अंतरं कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखिज्जवासमभहियाई, बेइंदिय अपज्जत्तगस्स गं भंते ! अंतरं कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं-उक्कोसेणं अणतं कालं वणस्सइ कालो, एवं जाव पंचिंदिय अपज्जत्तगस्स' एकेन्द्रियापर्याप्तकस्य खलु भदन्त ! अन्तरं कालतः कियच्चिरं भवति ? गौतम! जघन्येनान्तमुहूर्तम् उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्रे संख्येयवर्षाभ्यधिके द्वीन्द्रियाऽपर्याप्तकस्य खलु भदन्त ! अन्तरं कालतः कियच्चिरं भवति ? गौतम ! जघन्येनान्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्र संख्येयवर्षाधिके द्वीन्द्रियाऽपर्याप्तकस्य खलु भदन्त ! करने में और पंचेन्द्रिय पर्याय को छोडने पर पुनः उसकी प्राप्ति करने में अंतर काल पडता है-अर्थात्-जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त का
और उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल प्रमाण तक का अंतर पडता है। 'अपज्जत्तगाणं एवं चेव पज्जत्तगाण वि एवं चेव' हे भदन्त ! अप
र्याप्तक एकेन्द्रिय की पर्याय छोडने पर पुनः उसकी प्राप्ति में अंतर कितना पडता है-इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-हे गौतम ! अपर्याप्तक एकेन्द्रिय पर्याय को छोडने पर पुनः उसकी प्राप्ति करने में अन्तर जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट से संख्यातवर्ष अधिक दो हजार सागर का पडता है दो इन्द्रिय अपर्याप्तक की पर्याय को छोड कर पुन: उसकी प्राप्ति करने में अंतर कितने काल का पडता है ? हे गौतम ! दो इन्द्रिय अपर्याप्तक की पर्याय को छोडने पर पुनः उसकी प्रासि करने में अन्तर जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त का और અંતર કાળ હોય છે. અર્થાત જઘન્યથી એક અંતર્મુહૂતનું અને ઉત્કૃષ્ટથી वनस्पति प्रभानु अंतर थाय छे. 'अपज्जत्तगाणं एवं चेव पज्जत्तगाण वि एवं चेव' भगवन् ! अपर्याप्त सन्द्रिय पर्यायन छोडीन इशथी तन પ્રાપ્ત કરવામાં કેટલું અંતર થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે હે ગૌતમ! અપર્યાપ્તક એક ઈદ્રિયના પર્યાયને છોડીને ફરીથી તેને પ્રાપ્ત કરવામાં જઘન્ય અંતર એક અંતર્મુહૂર્તનું અને ઉત્કૃષ્ટથી સંખ્યાત વર્ષ અધિક બે હજાર સાગરોપમનું થાય છે. બે ઈન્દ્રિય અપર્યાપ્તકની પર્યાયને છોડીને ફરીથી તેને પ્રાપ્ત કરવામાં કેટલા કાળનું અંતર પડે છે? હે ગૌતમ! બે ઈન્દ્રિય અપર્યટકના પર્યાયને છોડવાથી ફરીથી તેને પ્રાપ્ત કરવામાં જઘન્ય
જીવાભિગમસૂત્ર