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________________ ११२६ जीवाभिगमसूत्रे एवं चेव' शेष सनत्कुमारादि कल्पेष्वपि जीवा उत्पन्नपूर्वा अनेकशः । 'नवरं नो चेवणं देवित्ताए जाव गेवेजगा' नवरं नैव खलु देवीतया समुत्पन्नपूर्वाः, सनत्कुमारादिषु देवीनामुत्पादाऽभावात् एवं यावद्गवेयककल्पेषु वक्तव्यम् । 'अणुत्तरोववाईएसु वि एवं' अनुत्तरोपपातिकेष्वपि कल्पेषु सौधर्मकल्पवत् वक्तव्यता । 'नो चेव णं देवत्ताए देवित्ताए' नैव खलु देवतया देवितया वा अनुत्तरकल्पेषु अनन्तकृत्वो देवत्वस्य प्रतिषेधः विजय-जयन्त-वैजयन्ताऽपराजितेषु चतुर्षु उत्कर्षतोऽपि वारद्वयम् सर्वार्थसिद्धे महाविमाने एकवारम् एव गमनसमस्त जीव और समस्त सत्त्व अनेक वार अथवा अनन्तवार पृथिवी कायिक रूप से, देवरूप देवीरूप से अशन शयन यावत् भाण्डोपकरण रूप से उत्पन्न हो चुके हैं। शेष कल्पों में भी वे इसी प्रकार से अनेकवार अथवा अनन्तवार उत्पन्न हो चुके हैं 'णवरं नो चेवणं देवित्ताए जाव गेवेज्जगा, अणुत्तरोववातिएसु वि एवं, णो चेवणं देवत्ताए देवि त्ताए' परन्तु सनत्कुमार से लेकर यावत् ग्रैवेयक तक के देवों में ये समस्त प्राण, समस्त भूत, समस्त जीव और समस्त सत्व देवीप से उत्पन्न नहीं हुए हैं क्योंकि यहां पर इनका उत्पाद नहीं होता है विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित के देवों में ये समस्त प्राणादिक देवीरूप से उत्पन्न नहीं हुए हैं और न अनंतवार देवरूप से उत्पन्न हुए हैं क्योंकि यहां पर जीव दो बार से ज्यादा उत्पन्न नहीं होता है इसी तरह से सर्वार्थसिद्ध विमान में भी ये प्राणादिक देवी रूप से उत्पन्न नहीं हुए हैं और न अनेकवार देवरूप से उत्पन्न પ્રાણ, સઘળા ભૂત સઘળા જીવો, અને સઘળા સત્ય, અનેકવાર અથવા અનંતવાર પૃથ્વી કાયિક પણાથી દેવ રૂપથી, દેવી રૂપથી અશન, શયન, થાવત્ ભાંડેપકરણ રૂપથી ઉત્પન્ન થઈ ચૂકેલ છે. બાકીના કપમાં પણ તેઓ मा प्रमाणे अने पा२ २4241 मत पा२ ५न्न यूठा छ. 'णवरं णो चेव णं देवित्ताए जाव गेवेजगा, अणुत्तरोववातिएसु वि एवं, णो चेव णं देवत्ताए देवित्ताए' ५२ सनमा२ थी सन यावत् अवेय: सुधीना वोमां એ સઘળા પ્રાણ, સઘણું ભૂત, સઘળા જીવ, અને સઘળા સત્વે દેવી પણ થી ઉત્પન્ન થયા નથી કેમ કે–અહીયાં તેને ઉત્પાત થતો નથી. વિજય, જયન્ત, જયન્ત અને અપરાજીત ના દેવા માં એ સઘળા પ્રાણ, ભૂત વિગેરે દેવી પણ થી ઉત્પન્ન થતા નથી. અને અનંત વાર દેવ પણ થી પણ ઉત્પન્ન થતા નથી, કેમ કે અહીયાં જે બે વાર થી વધારે વાર ઉત્પન્ન થતા નથી એજ પ્રમાણે સર્વાર્થ સિદ્ધ વિમાને માં પણ પ્રાણાદિક દેવી પણ થી જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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