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________________ ११०० जीवाभिगमसूत्रे यायाः शर्कराप्रभायाः पृथिव्याः अधस्तनचरमान्तात् यावज्जानन्ति पश्यन्ति । 'एवं बंभलोगलंतकदेवा वि' एवमेव-ब्रह्मलोकलान्तकदेवावपि जानतः पश्यतः। नवरम्-'अहे जाव तच्चाए पुढवीए' उत्कर्ष तोऽधो यावत्तृतीयस्याः पृथिव्याः । 'महासुक्क सहस्सारगदेवा चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए हेटिल्ले चरिमंते' महाशुक्रसहस्रारकल्पदेवाः चतुर्थ्याः पङ्कप्रभायाः पृथिव्याः अधस्तनं चरमान्तं यावज्जानन्ति पश्यन्त्यूत्कर्षतः । 'हेटिम मज्झिम गेवेज्जगदेवा छट्टीए तमप्पभाए पुढवीए हेटिल्ले-चरिमंते' अधस्तनमध्यमग्रैवेयकदेवा उत्कर्षतश्च पष्टयास्तमप्रजाव दोच्चाए सकरप्पभाए पुढवीए हेट्ठिल्ले चरिमंते' वे अधोलोक की अपेक्षा द्वितीय पृथिवी शर्कराप्रभा के अधस्तन चरमान्त तक जानते देखते हैं । 'एवं बंभलोग लंतए देवा वि' इसी तरह से ब्रह्मलोक और लान्तक देव भी जानते हैं और देखते हैं-परन्तु अधोलोक की अपेक्षा वे 'तच्चाए पुढवीए तृतीय पृथिवी के अधस्तन चरमान्त तक जानते हैं और देखते हैं 'महासुक्कसहस्सारगदेवा चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए हेढिल्ले चरिमंते' महाशुक्र और सहस्सार देव चतुर्थ पंकप्रभा पृथिवी के अधस्तन चरमान्त तक जानते और देखते हैं 'आणय पाणय आरणच्चुय देवा अहे जाव पंचमीए पुढवीए धूमप्प भाए हेढिल्ले चरिमंते' आनत प्राणत आरण और अच्युतदेव पंचमी पृथिवी के अधस्तन चरमान्त तक जानते और देखते हैं 'हेहिममज्झिमगेविज्जा देवा छट्ठीए तमप्पभाए पुढवीए हेटिल्ले चरिमंते' अधस्तन छ मन मे . परंतु 'अहे जाव दोच्चाए सक्करप्पभाए पुढवीए हेदिल्ले चरिमंते' તેઓ અલેકની અપેક્ષાએ બીજી શર્કરા પ્રભા પૃથ્વીના નીચેના ચરમાન્ત संधी तो छ भने थे छ. 'एवं बंभलोगलंतकदेवा वि' मे प्रमाणे બ્રહ્મલેક અને લાન્તક કલ્પના દેવે પણ જાણે છે અને દેખે છે. પરંતુ અધેसोनी अपेक्षाथी तेस। 'तच्चाए पंकप्पभाए पुढवीए हेदिल्ले चरिमंते' की पृथ्वीन नीयन। २२मान्त सुधी १ त छे भने हे छ. 'महासुक्क सहस्सार देवा चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए हेदिल्ले चरिमंते' महाशु भने સહસ્ત્રાર કલપના દેવ ચોથી પંકપ્રભા પૃથ્વીના નીચેના ચરમાન્ત સુધી જાણે छ भने हेमे छ. 'आणयपाणय आरणच्चुयदेवा अहे जाव पंचमीए पुढवीए धूमप्पभाए हेदिल्ले चरिमंते' मानत प्रात, २।२९ अने. अश्युत ४५ना हे। पायभी पृथ्वीना नीयन। २५२मान्त ५५ - नए छ भने से छ. 'हेट्रिम मज्झिमगेवेज्जा देवा छट्ठीए तमप्पभाए पुढवीए हेढिल्ले चरिमंते' २५५स्तन જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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