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________________ १०७४ जीवाभिगमसूत्रे अणुत्तरोववाइयविमाणा णिच्चा लोया-णिच्चुज्जोया सयं पभाए पन्नत्ता' सौधर्मेशानयोः कल्पयोः खलु भदन्त ! विमानानि कीदृशानि प्रभया प्रज्ञप्तानि । कीदृशी तेषां प्रभा प्रज्ञप्तेति भावः, भगवानाह-गौतम! कि ब्रम:-नित्यमालोक प्रकाशो येषां तद्विधानि-नित्योद्योतानि-सततं त्रिषु कालेषु दिवारात्रावह निशम् भाभिरुयोतमानानि कान्तिमन्ति घुमन्ति च ॥१॥ स्वयंप्रभाणि न परापेक्षा सौधर्मेशानकल्पविमानवत् सनत्कुमारकल्पादारभ्याऽनुत्तरोपपातिकविमानपर्यन्तानि सर्वविमानानि नित्यालोकानि नित्योद्योतानि स्वयंप्रभाणि प्रज्ञप्तानि इति। कैसी है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! णिच्चालोआ णिच्चुज्जोया, सयं पभाए पण्णत्ता, जाव अणुत्तरोववातिय विमाणा णिच्चालोआ णिच्चुज्जोया सयं पभाए पण्णत्ता' हे गौतम ! सौधर्म और ईशान कल्पों में जो विमान हैं वे अपनी प्रभा से सर्वदा प्रकाश शाली रहते हैं सर्वदा रात दिन उद्योत वाले रहते हैं कान्ति से भरपूर रहते है और द्युति वाले रहते हैं रात दिन चमकते रहते हैं इस तरह की इनकी यह चमकाहट सूर्यरश्मि के संपर्क से मेरु के स्फटिक की रेणु की चमकाहट की तरह परापेक्ष नहीं हैं जैसा यह वर्णन सौधर्म ईशान के विमानों की प्रभा का किया गया है उसी तरह का वर्णन सनत्कुमार से लेकर अनुत्तरोपपातिक विमानों की प्रभा का भी किया गया जानना चाहिये अर्थात् इन सब देवलोकों के विमानों की प्रभा ऐसी ही होती है कि जिससे ये सब विमान स्वयं ही की प्रभा से सूर्य की प्रभा की तरह रात दिन आलोकित रहते हैं, उद्योतित रहते हैं कान्तियुक्त रहते हैं और दीप्तियुक्त बने रहते हैं। उत्तरमा प्रमुश्री ४ छ -'गोयमा ! णिच्चालोया णिच्चुज्जोया, सयं पभाए पण्णत्ता' गौतम ! सौधर्म मने शान ४८योमा २ विमान छे. तस। પિતાની પ્રમાથી સર્વદા પ્રકાશમાન રહે છે. તથા ઘુતિવાળા રહે છે. રાત દિવસ ચમકતા રહે છે. આ રીતની તેમની આ ચમકાહટ સૂર્યના કિરણોના સંપર્કથી તારાના સ્ફટિક કણોના ચમકાટની જેમ પરાપેક્ષ નથી. જે પ્રમાણે આ વર્ણન સૌધર્મ ઈશાનના વિમાનની પ્રભાનું કરવામાં આવેલ છે. એ જ પ્રમાણેનું વર્ણન સનસ્કુમારથી લઈને અનુત્તરપાતિક વિમાનની પ્રભાનું પણ એજ પ્રમાણેનું વર્ણન છે તેમ સમજવું. અર્થાત્ આ બધા દેવલોકન વિમાનની પ્રભા એજ પ્રમાણે હોય છે. કે જેથી એ બધા વિમાન પિતાની જ પ્રભાથી સૂર્યની પ્રજાની જેમ રાત દિવસ આલેકિત રહે છે, ઉદ્યોતિત રહે છે. કાન્તિ યુક્ત રહે છે. અને દીપ્તિ યુકત બન્યા રહે છે. જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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