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________________ जीवाभिगमसूत्रे अच्छा जाव पडिरूवा' सर्वरत्नमया स्ते संघाताः अच्छाः श्लक्ष्णाः लण्हा: घृष्टाः मृष्टाः नीरजस्काः निर्मलाः निष्पङ्काः निष्कंकटच्छायाः सप्रभाः सोद्योताः समरीचिकाः दर्शनीयाः प्रासादीयाः अभिरूपाः । 'एवं हयपक्ति गजपक्ति वृषभपङ्क्ति, हयवीथि गजवीथि वृषभादिवीथि, हयमिथुनक गजमिथुनक वृषभादिमिथुनकान्यपि वक्तव्यानि 'दो दो पउमलयाओ जाव पडिरूवाओ' द्वे द्वे पद्मलते यावत्प्रतिरूपाः, । तेषां तोरणानां पुरतो द्वे द्वे पद्मलते द्वे द्वे नागल ते द्वे द्वे अशोकलते द्वे द्वे चम्पकलते द्वे द्वे चूतलते आम्रलते द्वे द्वे वासन्तिकलते द्वे द्वे कुन्दलते द्वे द्वे अतिमुक्तलते द्वे द्वे श्यामलते प्रज्ञप्ते-कथिते एताश्च लताः कथं भूता स्तत्राह-'णिचं कुसुमियाओ णिच्चं मउलियाओ णिच्चं मया' सर्वात्मना रत्नमय है 'अच्छा जाव पडिरूवा अच्छ आकाश और स्फटिकमणि के जैसे अतिनिर्मल है यावत् प्रतिरूप है। यहां यावत् शब्द से 'इलक्ष्ण लण्ह, घृष्ट मृष्ट, नीरजस्क, निर्मल, निष्पङ्क, निष्कंकटच्छाय, सप्रभ, सोद्योत, समरीचिक, दर्शनीय, प्रासादीय, अभिरूप' इन विशेषणों का ग्रहण हुआ है। इसी तरह से उन तोरणों के आगे हयपंक्ति, गजपंक्ति, और वृषभादिपंक्तियां भी है तथा यवीथिकाः गजवीथिका और वृषभादि वीथिकाएं भी है और हयमिथुनक, गजमिथुनक और वृषभादिमिथुनक भी है 'दो पउमलयाओ जाव पडिरूवाओ' इसी प्रकार से उन तोरणों के आगे दो दो पद्मलताएं यावत्-दो दो नागलताएं दो दो अशोकलताएं, दो दो चम्पकलताएं, दो दो आम्रलताएं, दो दो वासन्तिकताएं, दो दो कुन्दलताएं दो दो अतिमुक्तकलताएं और दो दो श्यामलताएं हैं । ये वृषल यातियो डस . २१ था संघाट। 'सव्वरयणामया' सामना रत्न भय छे. 'अच्छा जाव पडिख्वा' १२७-2012A मने २५टि४ माशीनी म અત્યંત નિર્મળ યાવત્ પ્રતિરૂપ છે. અહીયાં યાવત્ શબ્દથી ક્ષણ, સહ, વૃષ્ટ, મૃષ્ટ, નીરજસ્ક, નિર્મલ, નિષ્પક નિકંકટચ્છાય સપ્રભ સેદ્યોત સમરી ચિક, દર્શનીય પ્રાસાદીય અને અભિરૂપ આ તમામ વિશેષણ ગ્રહણ થયા છે. એજ રીતે એ તોરણની આગળ હયપંક્તિ, ગજપંક્તિ અને વૃષભાદિ પંકિત પણ કહેવામાં આવેલ છે. તથા હયવીથિકા, ગજવીથિકા અને વૃષભાદિ વીથિકાઓ પણ છે. તથા હયમિથુન, ગજમિથુન, અને વૃષભાદિ મિથુને પણ छ- 'दो पउमलयाओ जाव पडिरूवाओ' से शते थे तोरणनी भाग પદ્મલતાઓ, યાવત્ બલ્બ આમ્રલતાએ બખે વાસંતિલતાઓ બબ્બે કુંદ લતાએ બન્ને અતિમુક્ત લતાઓ અને બન્ને શ્યામલતાઓ છે. અને આ જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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