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________________ ८५४ जीवाभिगमसूत्रे चम्मेइ वा' वराहचर्म इति वा, 'सीह चम्मेइ वा' सिंहचर्म इति वा, 'वग्धचम्मेइ वा' व्याघ्रचर्मेति वा, "विगचम्मेइ वा' वृकचर्मेति वा, 'दीवीचम्मेइ वा' द्वीपि-चित्रकस्तस्य चर्मेति वा, 'अणेग संकुकीलगसहस्सवितते' अनेकशङकुकोलकसहस्रविततः एतेषामुरभ्रादीनां प्रत्येकं चर्म अनेकैः शङ्कप्रमाणैः कीलकसहस्रैः महद्भिः कीलकैरताडित पायो मध्य क्षामं भवति न समतलं भवति, अतः शङ्कग्रहणम्, विततं-विततीकृतम् ताडितं सत् यथाऽत्यन्तं बहुसमं भवति तथा तस्यापि वन षण्डस्यान्तबहुसमो भूमिभागः । पुनः कथंभूतो भूमिभागस्तत्राह-'णाणाविह पंचवन्नेहि' इत्यादि, 'णाणाविह पंचवण्णेहिं तणेहि य मणीहि य उवसोभिए' नानाविध पञ्चवर्णैस्तृणैश्च मणिभिचोपशोभितः कथंभूतै स्तैः ? तत्राह-'आवड' वा' उसभभाषा में बैलका नाम है 'वराह चम्मेइ वा' वराह नाम सुअर का है 'सीह चम्मेइ वा' सिंहा नाम शेर का है। 'वग्घचम्मेइवा' व्याघ्र नाम सिंह की ही एक जाति के जानवरका नाम है, 'विगचम्मेइ वा' वृकनाम भेडिया का है 'दीवि चम्मेइ वा द्वीपीनाम चीत्ता का है 'अणेग संकुकीलग सहस्सावितते' इन सव जानवरों का चमडा शङ्कप्रमाण बडी २ हजारों कीलों से जब तक ताडित नहीं होता है तब तक वह समतल वाला नहीं होता है, किन्तु वह मध्य में क्षाम-पतला-रहता है और जब वह-ताडित होता है तब वह बहुसम हो जाता है, अतः जिस प्रकार इन सवका चमडा इस प्रकार से ताडित हो जाने पर समतल वाला हो जाता है, उसी प्रकार से इस वनखंड का भी भीतरी भूमि भाग समतल वाला है 'नाणाविह पंचवण्णेहिं तणेहिं य मणीहिय उव. सोभिए' यह भूमिभाग नाना प्रकार के पंचवर्णीवाले तृणो से एवं से भूमिला समतो छ मेरी शत 'उसभचम्मेइ वा' वृषम अर्थात पण 'वराहचम्मे इवा' १२ (मुंड) सुपरने छे. 'सोहचम्मेइ वा' सिंह 'वग्धचम्मे इवा' पाप से सिंहनी मे तनुं नाम छे. 'विगचम्मेइ वा' ४ अर्थात् म दीविचम्मेइ वा' दीपि से वित्तानु नाम छे. 'अणेग संकुकीलग सहस्सवितते' मा मघा नवरातुं यामडं शं वा मोटा मोटा । ખીલાથી જ્યાં સુધી ટીપવામાં આવતા નથી ત્યાં સુધી તે સમતલ બનતા નથી. પરંતુ તે મધ્યમાં પાતળા રહે છે. અને જ્યારે તે ટીપાય છે, ત્યારે તે એક દમ સમ સરખા બની જાય છે. તેથી જે રીતે આ બધાનું ચામડું આ રીતે ટીપાયા પછી સમતલ બને છે, એ જ પ્રમાણે એ વનખંડની અંદરને ભૂમિ भागसमतलवाणे होय छे 'नाणाविह पंचवण्णेहिं तणेहिं य मणीहिय उव सोभिए' मा भूमिलाप भने अरना पंय वर्णवाणा तृणेथी भने भथियो જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006344
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages918
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size46 MB
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