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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ उ. ३ सू. ५३ वनषण्डादिकवर्णनम् ८४५ क्ष्यते इति अतएव - 'अविरलपत्ता ' अविरलपत्राः, अत्रापि हेत्वर्थे प्रथमा, ततश्चायमर्थः - यतोऽविरलपत्राः, अतोऽच्छिद्रपत्राः, अविरलपत्रत्वमेव कुतस्तत्राह - ' अवाई - पत्ता' अवातीनपत्राः, वातीनानि वातोपहतानि वातेन पातितानीत्यर्थः न वातीनानि इत्यवातीनानि पत्राणि येषां ते तथा अयं भावः - न तत्र प्रबलो वातः खरपरुषो वाति येन पत्राणि त्रुटित्वा भूमौ निपतन्ति ततोऽवातीन पत्रत्वाद विरलपत्रा इति, अच्छिद्रपत्रत्वे प्रथमव्याख्यानपक्षमधिकृत्य कारणमाह - 'अणईई पत्ता ' अनीतिपत्राः न विद्यते इति गडुरिकादिरूपा येषां तानि अनीतीनि, अनीतीनि पत्राणि येषां ते अनीतिपत्राः, अनीतिपत्रत्वादेव अच्छिद्रपत्रा इति, 'णिधूय जरढपंडुरपत्ता' निर्धूतजरठपाण्डुरपत्राः, निर्धूतानि -अपनीतानि जरठानि पाण्डुनि पत्राणि येभ्यस्ते निर्धूत जरठपाण्डुपत्राः, यानि वृक्षस्थानि जरठानि पाण्डूनि पत्राणि तानि वातेन निर्धूय निर्धूय भूमौ पात्यन्ते, भूमेरपि च नहीं दिखलाई देता है यही वात, 'अविरलपत्ता' इस पद द्वारा पुष्ट की गई है यहां पर भी यह हेत्वर्थ में प्रथमा विभक्ति हुई है । इससे यह ध्वनित होता है कि जिस कारण ये अविरल पत्रों वाले है, इसी कारण ये अच्छिद्र पत्रों वाले हैं 'अवाइणपत्ता - अवातीन पत्रा:' ये अविरल पत्रों वाले इस कारण से है कि यहां पर ऐसी जोर की हवा नहीं चलती है, कि जिसकी वजह से इनके पत्र डाल से टूटकर जमीन पर तोर जावे, 'अणईइपत्ता' गड्डरिकादि रूप ईति यहां पत्रों में होने नहीं पाती है इसलिये भी ये अच्छिद्र पत्रों वाले है, 'निद्धूयजर - ढपंडुरपत्ता' इन वृक्षों पर जो पत्ते पुराने पड जाते है और सफेद हो जाते है वे पत्र वायुद्वारा वहां से जमीन पर गिरादिये जाते है तथा जमीन ऊपर पडे हुए वे पत्र भी वहां से उडा उडाकर अन्यत्र कर છિદ્રો દેખાતા નથી. એજ वात 'अविरलपत्ता' मे पहथी पुष्ट २वाभां આવેલ છે. અહીંયાં પણ આ હેત્વમાં પ્રથમા વિભક્તિ થયેલ છે. એનાથી એ ધ્વનિત થાય છે કે જે કારણે એ અવિરલ પત્રાવાળા છે, એજ કારણથી ते सच्छिद्र पत्रोवाजा छे. 'अवाइणपत्ता - अवातीनपत्रा' मे अविरत पत्रोवाजा એ કારણથી છે કે ત્યાં એવા જોરથી હવા નથી ચાલતી કેજેના કારણે એના पानडाओ डाजथी तूटिने भीन पर पडी लय 'अणइइ पत्ता' गड्डरिडाद्वि ३५ ઈતિ આ પાનાઓને થતી નથી. તેથી પણ એ અચ્છિદ્ર પત્રાવાળા હોય છે, 'णिद्वय जरढ पत्ता' मा वृक्ष पर ने पानडाओ। नुना यह लय छे. अने સફેદ્રુ થઈ જાય છે, તે પત્રા પવન દ્વારા જમીન પર પાડી નાખવામાં આવે છે. તથા જમીન પર પડેલા તે પાનડાએને પણ ત્યાંથી ઉડાડીને બીજે લઈ જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006344
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages918
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size46 MB
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