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________________ ८०४ जीवाभिगमसूत्रे णं उडूं उच्चत्तेणं' अर्द्धयोजन द्वे गभ्यूते - ऊर्ध्वमुच्चत्वेन 'पंचधणुसयाई' विक्खंभेण पञ्चधनुःशतानि विष्कम्भेण इदं परिमाणमेकस्य जालकटकस्य प्रोक्तम् । जगत्याः प्रायो बहुमध्यदेशभागे सर्वत्र जालकानि सन्ति तानि च प्रत्येक मूर्ध्व मुच्चैस्त्वेन द्वे गच्युते, विष्कम्भेण पञ्चधनुःशतानीति । स कीदृश: ? इत्याह'सव्वरयणामए' सर्वरत्नमयः सर्वात्मना - सामस्त्येन रत्नमयो वज्ररत्नात्मकः 'अच्छ 'सहे लहे जाव पडिरूवे' 'अच्छे' अच्छ:- स्वच्छ आकाशवत् 'सव्हे' श्लक्ष्णः 'लव्हे' लहः अत्र यावत्पदसंग्राह्याणि पदानि यथा - 'घट्टे मट्ठे' घृष्टो मृष्टः 'णीरए' नीरज: 'निम्मले ' निर्मलः 'णिष्पके' निष्पङ्कः 'णिक्कंकडच्छाए' निष्कङ्कटच्छायः' 'सप्पभे' सप्रभः 'सस्सिरी ए' सश्रीकः 'समरीए' समरीचः 'स उज्जोए' सोद्योतः 'पासादीएः' प्रासादीयः 'दरिसणिज्जे' दर्शनीयः 'अभिरूवे' अभिरूपः 'पडीरू वे' प्रतिरूपः जालकटकविशेषणपदाना पूर्ववदेवार्थः स्वयमेवोहनीयः । ५१ । मूलम् - तीसे णं जगईए उपि बहुमज्झदेसभाए, एत्थ णं एगा महई पउमवर वेड्या पन्नत्ता, सा णं पउमवरवेइया अद्धजोयणं उ उच्चत्तेणं पंचधणुसयाइं विक्खंभेणं सव्वरयणा , भेणं सव्वरयणामए अच्छे सण्हे लव्हे जाव पडिरूवे' यह जालकटकजालसमूहजापडि दो कोश ऊंचा है और पांच सौ धनुष का विस्तारवाला है। चौडा है यह जाल समूह जगती के प्रायः मध्यभाग में हैं और एक जालका छुह प्रमाण कहा गया है । यह जालकटक किस प्रकार का है सो कहते है । 'सव्वरयणामए' यह जालकट सर्वात्मना रत्नमय है । अच्छे है । आकाश एवं स्फटिक रत्न के जैसा परम निर्मल है । इलक्षण है लष्ट है यावत् प्रतिरूप है यहां यावत्पद से 'घट्टे मट्ठे णीरए, णिम्मले, णिवं के णिक्कंकडच्छाए, सप्पभे, सस्सिरीए, सउज्जोए पासादीए, दरिसणिज्जे, अभिरूवे' इन पदों का संग्रह हुआ है इनकी व्याख्या उपर में की जा चूकी है वहां से समझ लेना चाहिये ॥५१॥ જાલ સમૂહ જગતીના મધ્યભાગમાં છે. આ પ્રમાણ એક જાળનું કહેલ છે. माल उडवा अारनु छे, ते उहे छे. 'सव्व रयणामए' मा लस ट સર્વ પ્રકારે રત્નમય છે. સ્વચ્છ છે. આકાશ અને સ્ફટિકની જેમ નિર્મૂલ છે, सक्ष्णु छे, लष्ट छे, यावत् प्रति३य छे महीयां यावत्पथी 'घट्टे मट्टे गीरए णिम्मले णिप के णिक्कंकड च्छाए, सप्पभे, सस्सिरीए समरीए, सउज्जोए, पासादीए, दरिसणिज्जे अभिरूवे' या होना संग्रह थयेस छे. आ पहोनी व्याभ्या उपर કરવામાં આવી ગઈ છે, તા તે ત્યાંથી સમજી લેવી. ૫ ૪૯ ॥ જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006344
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages918
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size46 MB
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