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________________ ८०३ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३सू.५१ द्वीपसमुद्रनिरूपणम् तयाऽभिमुखं रूपं यस्याः सा अतिरूपा अत्यन्तकमनी येत्यर्थः । अतएव 'पडिरूवा' प्रतिरूपा, प्रति विशिष्टमसाधारणं रूपं यस्याः सा प्रतिरूपा अथवा प्रतिक्षणं नवं नवमिव रूपं यस्याः सा प्रतिरूपा, । ___'सा णं जगती' सा अनन्तरोक्ता खलु जगती 'एक्केणं जालकडएणं' एकेन जालकटकेन, जालानि-जालकानि यानि भवनभित्तिषु लोकेऽपि प्रसिद्धानि तेषां कटकः समूहो जालकटको जालाकी र्णरम्यसंस्थान-प्रदेशविशेष पंक्तिरित्यर्थः तेन जालकटकेन 'सव्वओं' सर्वत: सर्वासु दिक्षु 'समंता' समन्तात्-सामस्त्येन 'संपरिक्खित्ता' संपरिक्षिप्ता-सम्यग्वेष्टितेति । सम्प्रति जालकटकस्य प्रमाणमाह-'से णं' इत्यादि से णं जालकडए स खलु जालकटक 'अद्ध जोयरहता है अतः समरीचा है वहिः स्थित वस्तुओं की प्रकाशिका होने से यह सोयोता है मनकी प्रसन्नता करानेवाली होने के कारण प्रासादीया है। इसे देखतेर न मन थकता है। और न नेत्र ही थकते है-अतः यह दर्शनीया है। देखनेवालो कोइसका रूप बहुत ही अधिक कमनीय लगता है इसलिये यह अभिरूपा है। तथा इसका रूप जैसा रूप और कहीं नहीं हैं इसलिये अथवा क्षण२ में इसका रूप नया जैसा ही देखनेवालों को प्रतीत होता है इसलिये यह प्रतिरूपा है 'सा णं जगती एक्केणं जालकडएणं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ता' यह जगती एक जालकटक से भवन को भित्तियों में बनाये गये रोशन्दानों (झरोंखा) के जैसे रम्य संस्थान वाले प्रदेश विशेषों की पंक्तियों से समस्त दिशाओं की और अच्छी तरह से घिरी हुई है। अब जालकटक का प्रमाण कहते है। 'से णं जालकडएणं अद्धजोयणं उडू उच्चत्तेण पंचधणुसयाई विक्खं એ સોધતા છે. મનની પ્રસન્નતા કરવવાવાળી હોવાથી પ્રાસાદીયા છે, તેને જોતા જોતા મન કયારેય થાકતું નથી તેમજ આંખે પણ થાકતી નથી તેથી તે દર્શનીયા છે. જેવાવાળાને તેનું રૂપ ઘણુજ સુંદર લાગે છે, તેથી તે અભિરૂપ છે. તથા તેના રૂપ જેવું રૂપ બીજે કયાંય નથી, તેથી અથવા ક્ષણ ક્ષણમાં तेनु ३५ नवाश नारायाने य छे. तेथी प्रती३५॥ छ. 'सा गं जगती एक्केणं जालकड़एणं सव्वओ समता संपरिक्खित्ता' ५ गती मे જાલ કટકથી ભવનની ભી તેમાં બનાવવામાં આવેલ રોશન્ટનેના જેવી રમણીય સંસ્થાન વાળા પ્રદેશ વિશેની પંક્તિયોથી બધી દિશાથી સારી રીતે ઘેરાયલી છે. टर्नु प्रमाण मतावतi सूत्रा२ छ , 'सेणं जालकडएणं अद्धजोयणं उड़ढ उच्चत्तेणं पंच धणुसयाई विक्खभेणं सव्व रयणामए अच्छे सण्हे लण्हे, जाव पडिरूवे' मा MA MAस में सनी या वाणे છે. અને પ૦૦ પાંચસો ધનુષના વિસ્તાર વાળે છે. પહોળાઈ વાળો છે. આ જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006344
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages918
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size46 MB
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