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________________ ७५६ जीवाभिगमसूत्रे तरियाए परिसाए देवीणं' आभ्यन्तरिका यां समिताभिधानायां प्रथमायां पर्षदि देवीनाम् 'देस् णं अद्धपलिओवम ठिई पन्नत्ता' देशोनं-देशतो न्यूनमदर्धपल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता, 'मज्झिमियाए परिसाए देवीणं' माध्यमिकायां चण्डाभिधानायां पर्षदि देवीनाम् 'साइरेगं चउभागपलिओवमं ठिई पन्नता' सातिरेकं चतुर्भाग पल्योपमं पल्योपमस्य सातिरेकश्चतुर्थो भागः स्थितिः प्रज्ञप्ता, तथा-'बाहिरियाए परिसाए देवीणं' बाह्यायां जाताभिधानायां चरमायां पदि देवोनाम् 'चउभाग पलिओवम ठिई पन्नता' चतुर्भाग पल्योपमम् पल्योपमस्य चतुर्भागप्रमाणा स्थिति र्भवतीति । 'अट्ठो जहा चमरस्स' अर्थों यथा चमरस्य, अयं भाव:-हे भदन्त ! धारणस्य नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य केन कारणेन तिस्रः पर्षदः प्रज्ञप्ताः, समिता चण्डा जाता आभ्यन्तरिका समिता, माध्यमिका चण्डा, बाया जाते त्यादिकं सर्व चमरासुरकुमारेन्द्रासुरराजवदेव ज्ञातव्यमिति ॥ परिषदा के देवों की स्थिति कुछ कम अर्द्ध पल्योपम की है इसी तरह नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरण की आभ्यन्तर परिषदा की देवियों की स्थिति 'देवसूणं अद्धपलिओवम ठिई पण्णत्ता' कुछ कम अर्द्ध पल्योपम की स्थिति कही गई है 'मज्झिमियाए परिसाए देवीणं साइरेगं चउभागपलिओवमं ठिई पण्णत्ता मध्यमा परिषदा के देवियों की स्थिति कुछ अधिक पल्योपम के चतुर्थ भाग प्रमाण है 'अट्ठो जहा चमरस्स' इस सूत्र पाठ का ऐसा तात्पर्य है-हे भदन्त! नागकुमारेन्द्र-नागकुमा. रराज धरण की ये तीन परिषदाएं किस प्रकार से आपने कहीं हैं ? तो हे गौतम ! तुम्हारे इस प्रश्न का उत्तर असुरकुमारेन्द्र असुरकुमारराज चमर के प्रकरण में जैसा इस सम्बन्ध में कहा गया है वैसा ही है अतः (-समुच्चय) वहीं से यह समझा जा सकता है ? नागभारेन्द्र नागभा२२०४ घनी मान्यन्त२ परिषहानी वियानी 'देसणं अद्धपलिओवमं ठिई पण्णत्ता' भ म पक्ष्या५मनी छे. 'मज्झिमियाए परिसाए देवीणं साइरेग चउभागपलिओवमं ठिई पण्णत्ता' मध्यमा परिषहानी हेवियोनी स्थिति ॐ पधारे ५व्यापभनी याथाना प्रभानी छे. 'अट्ठो जहा चमरस्स' या सूत्रपातुं ता५य छ भन्नारामारेन्द्र नागभार રાજ ધરણનીએ ત્રણ પરિષદાઓ શા કારણથી આપે કહી છે? ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે હે ગૌતમ! આ તમારા પ્રશ્નનો ઉત્તર અસુરકુમારેન્દ્ર અસુરરાજ ચમરના પ્રકરણમાં આ વિષયમાં જેવું કથન કરવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણે છે. જેથી ત્યાંથી જ આ પ્રશ્નનો ઉત્તર સમજી લેવું. આ રીતે ઔધિક નાગકુમારનું અને દક્ષિણ દિશાના નાગકુમારેલું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર ઉત્તર દિશામાં જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006344
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages918
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size46 MB
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