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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३सू.३६ एकोरुकद्वीपस्थितद्रमगणवर्णनम् ५६१ रूपाभिः विभक्तिभिः-विच्छित्तिभिः कलिताः-युक्ताः 'भवणविहीबहुविकप्पा' भवनविधि बहुविकल्पा:-भवनविधिना अनेकप्रकाराः, 'त हे व ते गेहागारा वि दुमगणा' तथैव प्राकारादिवदेव ते गेहाकारा अपि द्रुमगणाः 'अणेग बहुविविहवीससापरिणयाए' अनेक बहुविविधविस्रसापरिणतेन भवनविधिना, कथं भूतेन भवनविधिना तत्राह-'मुहारुहाए सुहोत्तराए' सुखारोहणेन सुखोत्तारेण, सुखेनारोहणमूर्ध्वगमनं यस्य तेन सुखेन अधस्तादवतरणं यस्य स तथा तेन, 'सुहनिक्खमणप्पवेसाए' सुखनिष्क्रमण प्रवे शेन सुखेन- अनायासेन निष्क्रमणं निर्गमा प्रवेशश्च यत्र स तथा तेन 'ददरसोपाणपंतिकलियाए' दर्दरसोपानपक्ति कलितेन दर्दरा-धनी भूता सोपानपङ्क्तिस्तया कलि तेन युक्तेन 'पइरिकाए' प्रतिरिते गेहागारा वि दुमगणा' इसी प्रकार से वे गृहाकार नाम वाले कल्पवृक्ष भी 'अणेग बहु विविधवीससा परिणयाए सुहारूहणे, सुहो. तराए सुह निक्खमणप्पवेसाए, दद्दर सोपाण पंतिकलियाए पइरिक्काए सुह विहाराए, मणोऽणुकूलाए, भव ग विहीए उववेया' अनेक प्रकार की बहुत सी स्वाभाविक भवन विधि से-भवनों की रचना रूप प्रकार से-कि जिन भवनों के ऊपर चढने में और नीचे उत्तर ने में किसी भी प्रकार का परिश्रम-खेद-थकावट-नहीं होता है सुख पूर्वक जिनपर चढा और उत्तरा जा सकता है-आनन्द के साथ जिनके भीतर जाना होता है और आनन्द के साथ ही जिनसे बाहर निकलना होता हैतथा-जिनकी सोपान पङ्कियां दर्दरी घनीभूत-पास पास में होती है, और जिसमें विशालता को लेकर विहार सुख प्रद ही होता है, एवं जो मनोऽनुकूल होती है उस प्रकार की भवनविधियों से युक्त होते हैं 'कुस० जाव चिटुंति' इन पदो का अर्थ पूर्वोक्त जैसा ही है तात्पर्य ४५वृक्ष ५५ 'अणेग बहुविविध वीससा परिणयाए सुहारुहणे, सुहोत्तराए सुहनिक्खमणप्पवेसाए, दररसोपाण पंतिकलियाए पइरिक्रवाए सुहविहाराए, मणोऽणु क्लाए, भवणविहीए उववेया' भने प्रा२नी घी सवा २वालावि भवनविधिया અર્થાત્ ભવનની રચના રૂપ પ્રકારથી એટલે કે જે ભવનની ઉપર ચડવામાં અને નીચે ઉતારવામાં કોઈ પણ પ્રકારને પરિશ્રમ-ખેદ-થાક લાગતો નથી. અને જેના પર સુખ પૂર્વક ચડાય ઉતરાય છે. તથા આનંદ પૂર્વક જેની અંદર જઈ શકાય છે, અને આનંદ પૂર્વક જેની બહાર નીકળી શકાય છે. તથા જેના પગથિયા ઘનીભૂત પાસે પાસે હોય છે. અને જેના વિશાળ પણાને લઈને જવા આવ વાનું સુખદ થાય છે. અને જે મનને અનુકૂલ હોય છે. એવા પ્રકારની ભવન विधियोथी युत इय छे. 'कुसविकुस जाव चिटुंति' ॥ ५होना अर्थ पखi जी० ७१ જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006344
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages918
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size46 MB
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