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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३सू.३३ सभेद मनुष्यस्वरूपनिरूपणम् एगागारा पन्नत्ता' संमूछिममनुष्या एकाकारा-एकस्वरूपाः प्रज्ञप्ताः-कथिता इति संमूच्छिममनुष्याणां कुत्रोत्पत्ति भवतीति जिज्ञासु गौतमः पृच्छति-'कहि णं' इत्यादि, 'कहिणं भंते !संमूच्छिममणुस्सा संमुच्छंति' कुत्र कस्मिन् स्थाने खलु भदन्त ! संमृच्छिममनुष्याः संमूर्च्छन्ति-समुत्पद्यते इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अंतोमणुस्सखेत्ते' अन्तर्मनुष्यक्षेत्रे मनुष्यक्षेत्राभ्यन्तरे एव समुत्पद्यन्ते मनुष्याणामेव उच्चारप्रस्रवणाद्यशुचिस्थानेषु अन्तर्मुहत्तकालायुष एव कालं कुर्वन्ति 'जह पण्णवणाए जाव से तं समुच्छिममणुस्सा' यथा प्रज्ञापनायां कथितं यावत् ते एते संमूच्छिममनुष्या इति, संमच्छिममनुष्याणां विस्तरतो निरूपणं प्रज्ञापनायाः प्रथम प्रज्ञापना पदोक्तानुसारेणैव ज्ञातव्यम्, अत्र 'जाव' यावत् शब्दग्राह्याः प्रज्ञापना सूत्रस्य प्रथमपदोक्तास्तदालापका: यथा-'पणयालीसाए जोयणसयसहस्सेसु अड्राइज्जेसु दीवसमुद्देसु पण्णरससु कम्मएगागारा पन्नत्ता' हे गौतम ! संमूच्छिम मनुष्यों के भेद नहीं होते हैंक्योंकि संमुच्छिम मनुष्य एक स्वरूप वाले कहे गये हैं। 'कहि णं भंते ! समुच्छिम मणुस्सा संमुच्छंति' हे भदन्त ! इन समूच्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति कहां पर होती है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! अंतो मणुस्सखेत्ते' हे गौतम ! ये संमूछिम मनुष्य मनुष्य क्षेत्र के भीतर ही उत्पन्न होते हैं। तथा मनुष्यों के ही मल मूवादिक रूप अशुचि वस्तुओं में ही ये उत्पन्न होते हैं और इनकी आयु केवल एक अन्तर्मुहूर्त की होती है 'जहा पण्णवणाए जाव से त्तं समुच्छिममनुस्सा' संमुच्छिम मनुष्यों के सम्बन्ध में विस्तार से कथन प्रज्ञापना सूत्र के प्रथम पद में किया गया है अतः उसी के अनुसार यहां पर भी इनके सम्बन्ध में कथन समझ लेना चाहिये. यहां पर 'यावत्' शब्द से ग्राह्य प्रज्ञापना सूत्र उत्तरमा प्रसुश्री ३ छ संमुच्छिम मणुस्सा एगागारा पण्णत्ता' है गौतम! સંમૂર્ણિમ મનુષ્યના કેઈપણ ભેદ હોતા નથી. કેમકે સંમૂર્ણિમ મનુષ્ય એકજ ५१३५वाजा हावार्नु ४३ छ. शथी श्रीगोतमस्थाभी पूछे छे, 'कहिणं भंते ! संमुच्छिम मणुस्सा संमुच्छिंति' भगवन् मा संभूमि मनुष्यानि उत्पत्ती या याय छ ? म प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री ४३ छ । 'गोयमा ! जैतो मणुस्सखेते' હે ગૌતમ ! આ સંમૂર્છાિમ મનુષ્ય મનુષ્ય ક્ષેત્રની અંદર જ ઉત્પન્ન થાય છે. તથા મનુષ્યનાજ મલ મૂત્રાદિ રૂપ અશુદ્ધ વસ્તુઓમાંજ તેઓ ઉત્પન્ન થાય छ. अन तभानुभायुष्य मे संत डूत तुंग डाय छे. 'जहा पण्णवणाए जाव से तं संमुच्छिमणुस्सा' संभूमि मनुष्याना संबंध प्रज्ञायनासूत्रमा વિસ્તારપૂર્વક વર્ણન કરવામાં આવેલ છે, તેથી તે કથન પ્રમાણે અહિયાં પણ તેઓના સંબંધમાં કથન સમજી લેવું જોઈએ. “યાવત્' પદથી ગ્રહણ કરવામાં જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006344
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages918
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size46 MB
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