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________________ ४७६ जीवाभिगमसूत्रे भावादिति, 'अविशुद्धलेस्सेणं भंते ! अणगारे 'अविशुद्धले श्यः - कृष्णादिलेश्योपेतः खलु भदन्त ! अनगार - साधुः 'असमोहरणं अप्पाणेणं' असमवहतेन - वेदनादि समुद्घातरहितेनाऽऽत्मना 'विशुद्धलेस्से देवं देवि अणगारे' विशुद्ध लेश्यं देवं देवीमनगारं किम् ' जाणइ पासई' जानाति पश्यति, इति द्वितीयः प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि 'गोयमा' हे गौतम ! 'नो इणट्ठे समट्ठे' नायमर्थः समर्थः, अविशुद्धले श्यावच्चेन यथाऽवस्थितवस्तुपरिच्छेदाभावादिति ॥२॥ 'अविशुद्ध ले से भंते! अणगारे ' अविशुद्ध कृष्णादिलेश्यः खलु भदन्त ! अनगारः - साधुः 'समोहरणं अप्पाणे णं' समवहतेन वेदनादि समवघातगतेनात्मना रूप से न अविशुद्ध लेश्या देव को जानता देखता है । 'अविशुद्धलेस्से णं भंते! अणगारे असमोहरणं अप्पाणे णं विशुद्धलेस्सं देवं देवि अणगारं जाणइ पासई' हे भदन्त ! जो अनगार अविशुद्ध लेश्या वाला है और वेदनादि समुद्घात से विहीन है ऐसा वह अनगार वेदनादि समुद्घात रहित आत्मा के द्वारा क्या विशुद्ध लेश्या वाले देव को या देवी को या किसी अनगार को क्या जानता है और देखता है ? इस के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयमा ! नो इणडे समट्ठे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है क्योंकि अविशुद्ध लेश्या वाले यथावस्थित वस्तु को जानने वाले ज्ञान का अभाव रहा करता है । 'अविशुद्ध लेस्से णं भंते! अणगारे समोहरणं अप्पाणणं अविशुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारे जाणइ पासइ हे भदन्त ! जो अनगार अविशुद्ध लेश्या वाला है - लेश्या की विशुद्धि से विहीन है परन्तु वेदनादि समुद्घात गत है पशुाथी अविशुद्ध सेश्यावाणा हेवने भगतो हेषात नथी. अंवसुद्धलेस्सेण भंते अणगारे असमोहरणं अप्पाण विसुद्धलेस्सां देव ं देवि अणगार जाणइ पास' हे ભગવત્ જે અનગાર અવિશુદ્ધ લેશ્યાવાળા હાય છે, અને વેદના વિગેર સમુદ્ાતથી રહિત છે. એવા તે અનગાર વેદના વિગેરે સમુદ્લાતથી રહિત આત્માદ્વારા વિશુદ્ધ લેશ્યાવાળા દેવને અથવા દેવીને અથવા તેવા કોઈ અણુગારને શું જાણે છે ? કે દેખે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને हे छे ! 'गोयम । ! नो इणट्टे समट्टे' हे गौतम! आ अर्थ खरोखर नथी. કેમકે અવિશુદ્ધ લેશ્યા વાળાને યથાવસ્થિત વસ્તુને જાણવાના જ્ઞાનને અભાવ होय छे. 'अविसुद्धले सेणं, भंते ! अणगारं समोहरणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारे जाणइ पासइ' हे भगवन् ने मनगार अविशुद्ध सेश्यावाणा હાય છે, લેશ્યાની વિશુદ્ધીથી રહિત છે. પરંતુ વેદના વિગેરે સમુદ્ધાતવાળા છે, જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006344
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages918
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size46 MB
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