SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 358
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४६ जीवाभिगमसूत्रे विविच्य सूत्राणि स्वयमेवोहनीयानीति । 'इमीसे ण भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया' एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नारकाः, 'केरिसयं आउप्फासं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति' कीदृशं किमाकारकम् अपूस्पर्श-जलस्पर्श प्रत्यनु भदन्तः वेदयमाना विहरन्ति तिष्ठन्तीति प्रश्नः, भगवानाह 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अणिढे जाव अमणाम' अनिष्टम् यावद् अकान्तम् अपियम् अमनोज्ञम् अमनोऽमम् अप्रस्पर्शमनुभवन्तोऽवतिष्ठन्ते इति । ‘एवं जाव अहेसत्तमाए' एवं यावत् शर्कराप्रभा पृथिवीत आरभ्य तमस्तमापृथिवी पर्यन्तं नारकाणामपू स्पर्शोऽनिष्टत्वादिगुणोपेतो ज्ञातव्य इति । 'एवं जाव वणस्सइफासं अहेसत्तमाए पुढवीए' एवं यावद्वनस्पति स्पर्श मधासप्तम्यां पृथिव्याम् इति । एवम्-एवमेव पर्यन्त के सूत्रों का आलाप प्रकार स्वयं ही उद्भावित्तकर लेना चाहिये अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं-'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभा पुढवीए नेरइया'हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी में नैरयिक केरिसयं आउफ्फासं पच्चगुरुभवमाणा' जल स्पर्श कैसा अनुभवते हैं ? अर्थात् रत्नप्रभापृथिवी के नैरयिकों को जल का स्पर्श किस प्रकार प्रतीत होता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा! अणिटुंजाव अमणाम' रत्नप्रभा के नैरयिकों कोजलका स्पर्श अनिष्ट यावत् अमनोऽम होता है 'एवं जाव अहे सत्तमाए' इसी तरह से द्वितीय पृथिवी के नैरपिकों से लेकर अधःसप्तमी पृथिवी तक के जो नैरयिक है उन्हें भी जलका स्पर्श अनिष्ट यावत् अमनोऽम ही होता है 'एवं जाव वणस्सइफासं अहे सत्तमाए पुढवीए' इसी प्रकार से यावत् तेज का स्पर्श, और वायु का स्पर्श भी उन्हे अनिष्ट यावत् अमनोऽम व गौतभस्वामी प्रभुने मेवं पूछे छे । 'इमीसे ण भंते ! रयणप्पभा पुढवीए नेरइया' है सावन मा २त्नप्रभा पृथ्वीमा नैरपि। 'केरिसय जाउ. फास पच्चणुब्भवमाणा' उपासना २५ अनुमप ४२ छ ? अर्थात् २त्नप्रमा પૃથ્વીના નૈરયિકાને જલને સ્પર્શ કેવા પ્રકારથી જણાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रमुश्री गौतभस्वामीन ४ छ, 'गोयमा ! अणिद्रं जाव अमणाम' २त्नप्रमा पृथ्वीना नैयिन सन २५श मनिष्ट यावत् समनाऽभ हाय छे. 'एवं जाव अहे सत्तमाए' मा प्रमाणे मी पृथ्वीना नैयिाथी धन अधःसभी પૃથ્વી સુધીના જેનારક છે. તેમને પણ જલને સ્પર્શ અનિષ્ટયાવત અમનેડમ हाय छे. एवं जाव वणस्सइफास अहे सत्तमाए पुढवीए' का प्रमाणे यावत् तेन। સ્પર્શ અને વાયુને સ્પર્શ પણ તેઓને અનિષ્ટ યાવત્ અમનેડમ હોય છે. જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006344
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages918
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size46 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy