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________________ ३१८ जीवाभिगमसूत्रे धृति वा मतिं वा उपलभेत स नारकः, तत:-'सीए' शीतः 'सीई भृए' शीती भूतोऽतिशयेन शान्तः 'संकममाणे संकममाणे' संक्रामन् संक्रामन् 'साया सोक्ख बहुलेयावि' सातासौख्य बहुलश्चापि 'विहरेज्जा' विहरेदित स्ततः परिभ्रमेदिति । एतावत् कथिते भगवति गौतमः पृच्छति-'भवेयारूवा सिया' भवेदेतद्रूपा वेदना स्यात् संभाव्यते एतद् यथा भवेद् उष्णवेदनीयेषु नरकेषु एतद्रूपा उष्णवेदने ति । भगवानाह-'णो इणढे समढे' नायमर्थः समर्थः 'गोयमा' हे गौतम ! कोऽर्थों न समर्थः स्तत्राह-'उसिणवेयणिज्जेसु नरएसु' उष्ण वेदनीयेषु नरकेषु स्थिता ये 'नेरइया' नैरयिकास्ते 'एत्तो अणितरियं चेव उसिणवेयणं पच्चणुभवमाणा विहरंति' इतोऽनिष्टतरिकामेव उष्णवेदनां प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति इतोऽनन्तरं प्रतिपादिताया भेज्जा' अपनी भूला हुई स्मृति को, थोडी बहुत शान्ति को चित्त की स्वस्थता रूप धृति को एवं मति को, भी पा लेता है अतः 'सीए सीती भूए' शीत रूप हुआ और शीतीभूत हुआ-अपने आप में शान्ति का अतिशय रूप से अनुभव करता हुआ-वह नारक 'संकममाणे संकममाणे' वहां से हट कर 'सायासोक्ख बहुले यावि विहरेज्जा' साता और सुख बहुल स्थिति वाला बन जाता है प्रभु के इस प्रकार के कहने पर गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछ। हे भदन्त ! 'भवेयारूवे सिया' तो क्या उन उष्ण वेदनीय नरकों में इस प्रकार की उष्ण वेदना है? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'णो इणहे समढे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है क्योंकि 'उसिणवेयणिज्जेसु नरएसु नेरइया' उष्ण वेदना वाले नरकों में स्थित नेरयिक 'एत्तो अणितरियं चेव उसिणवेयणं पच्चणुभवमाणा मई वा उपलभेजा' पातानी सूखी स्मृतिने थोडी शांती यित्तनी २१२यता ३५ तिन मन भतिने ५९५ पामे छे. तेथी 'सीए सीतीभूए' शीत ३५ थयेस અને શીતભૂત થયેલ પિતે પિતાનામાં શાંતિને અતિશયપણાથી અનુભવ કરતે मीना 94 संकममाणे संकममाणे त्यांची टीन 'सायासोक्खबहले यावि विहरेज्जा' साता भने सुम महुल स्थितिवाणी मनी नय छे. असे આ પ્રમાણે કહેવાથી ગૌતમસ્વામી પ્રભુને એવું પૂછે છે કે હે ભગવન 'भवेयारूवेसिया' तो शुभ वेना व नाभा मा प्रारनी ! वना छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु छ 'णो इणट्रे समटे' हे गौतम। सामथ पशष२ नथी. भो 'उसिणवेयणिज्जेसु नरए नेरइया' वना पानमा २९ सा नैछि। 'एत्तो अणितरिय चेव उसिणवेयण पच्च. णुभवमाणा विहरंति' पूर्वात वेहनाथी ५ वा मनिस्टर सी नाना જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006344
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages918
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size46 MB
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