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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२सू.२१ नारकाणां नरकभवानुभवननिरूपणम् ३१७ पविनयेत् । नरकगतोष्णस्पर्शान् अय आकरादि गतोष्ण स्पर्शस्यातीव मन्दत्वेन तदपेक्षयात्र शरीरपरितापापनोदः संभवत्येवेति ततश्च 'निहाएज्ज वा पयलाएज्ज वा' स नारको निद्रायेत वा प्रचलायेत वा तृषादि दोषापगमेन निद्रादीनां संभवात् ततश्च-'सई वा रई वा धिई वा मई वा उपलभेज्जा' स्मृति वा रति वा दूर कर लेता है, 'दाहंपि पविणेज्जा' और दाह को भी शान्त कर लेता है यद्यपि ऐसा होता नहीं है न कभी हुआ ही है और न कभी आगे होगा भी परन्तु नरकों में नारक जीव को कितनी अधिक उत्कृष्ट उष्ण वेदना का अनुभवन होता है और वह उष्णता वहां कितनी है यह बात इस कथन से प्रतीति पथ में आ जाती है अतः सूत्रकार ने इसलिये यह बात यहां असत्कल्पना करके समझाई है । इसी को स्पष्ट करने के लिये उन्होंने 'असम्भाव पट्टवणाए' ऐसा सब से पहिले सूत्र में पद रखा है। तात्पर्य इस कथन का केवल यही है कि अय आकर (लोहा गरम करने की भट्ठी) आदि गत जो उष्ण स्पर्श है, वह उस नरक की उष्णता के आगे अत्यल्प है-मन्द है इसी लिये शरीर परिताप आदि नष्ट हो सकता है जब उस नारकी को इन स्थानों में भी उस मातङ्ग के जैसी शीतलता का अनुभवन होता है तो वह 'णिद्दाएज्ज वा' क्षणिक निद्राका भी सुख प्राप्त कर लेता है 'पयलाएज्ज वा' अथवा खडे २ वहीं पर ऊँध भी लेता है। इस तरह की अवस्था हो जाने पर फिर वह 'सई वा रइं वा धिईवा मईवा उपल६२ री छ. 'दाहंपि पविणेज्जा' भने हाइने ५५ शांत है 2. ने આમ થતું નથી. તેમ કયારે પણ તેમ થયું નથી. તેમ હવે પછી તેમ થશે પણ નહીં પરંતુ નરકમાં નારક જીવને કેટલી વધારે ઉત્કૃષ્ટ ઉષ્ણવેદનાને અનુભવ થાય છે. અને તે ઉષ્ણપણે ત્યાં કેટલું છે ? એ વાત આ કથનથી જાણવામાં આવી જાય છે. તેથી સૂત્રકારે આ વાત અસત્ક૯પના કરીને સમ वी. तर २५ट शत मता। भाटे तमामे 'असम्भावपटुवणाए' मा પ્રમાણેનો પાઠ સૌથી પહેલાં સૂત્રમાં કહ્યો છે. આ કથનનું તાત્પર્ય કેવળ એ જ છે કે અય આકર (ખંડને ગરમ કરવાની ભઠી) વિગેરેમાં રહેલ જે ઉષ્ણ સ્પર્શ છે, તે એ નરકનીઉષ્ણુતા આગળ અત્યંત અલ્પ હોય છે. અર્થાત મંદ છે. તેથી શરીરના પરિતાપ વિગેરે નાશ પામી જાય છે. જ્યારે એ નારકીને આ સ્થાનમાં પણ એ માતંગના જેવી શીતળતાને અનુભવ થાય છે, त्यारे ते 'णिदाएज्ज वा, क्षण निद्राना पण मनुल पास शनिद्रा३पी सुम ava छ.भाव। २नी अवस्था थ य त्यारे ते 'सई वा रई वा घिई वा જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006344
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages918
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size46 MB
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