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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ सू.२१ नारकाणां नरकभवानुभवननिरूपणम् ३१५ रिति वा 'तुसागणीइ वा तुषाग्निरिति वा 'तत्ताई' इत्थंभूतानि यानि स्थानानि मनुष्यलोके तानि तप्तानि वह्नि संपर्कत स्तप्तीभूतानि तानि च कानिचित् अय आकर प्रभृतीनि कदाचिदुष्ण स्पर्शमात्राण्यपि संभवन्ति ततो विशेष प्रतिपादनार्थमाह-'समजोइभूयाई' ज्योतिः समभूतानि प्रखरवह्निसंपर्कात् साक्षादग्निवर्णानि जातानि, एतदेव सादृश्येन दर्शयति-'फुल्लकिंसुयसमाणाई' फुल्लकि शुकसमानानि प्रफुल्लपलाशकुसुमतुल्यानि 'उक्कासहस्साई विणिम्मुयमाणाई' उल्कासहस्राणि विनिर्मुच्यमानानि ये मूलाग्नितो वित्रुटय अग्निकणाः प्रसर्पन्ति ते उल्का इति कथ्यन्ते तासां साहस्राणि प्रमुश्चन्ति, 'जालासहस्साई पमुच्चमाणाई' ज्वालासहस्राणि प्रमुच्यमानानि 'इंगालसस्साई पविक्खरमाणाई अङ्गार 'तुसागणीइवा' तुषकी अग्नि इत्यादि' 'तत्ताई ये सब स्थान मनुष्य लोक में बह्नि के संपर्क से संतप्तबने हुए रहते हैं, इनमें कितनेक लोहे के गलाने के भट्टे आदि रूप स्थान-उष्ण स्पर्श मात्र वाले भी होते हैं, अत: इनकी विशेषता दिखलाते हैं वे स्थान और वे अग्नि किस प्रकार के होते हैं ? सो कहते हैं-'समजोइभूयाई' ये साक्षात् अग्नि के ही स्थानापन्न हो रहे है। इनका जो वर्ण हैं वह 'फुल्लकिंसुयसमाणाई' फूले हुए किंशुक पलास के फूल जैसे लाल २ प्रतीत होता हैं 'उक्का सहस्साई विणिम्मुयमाणाई' जो हजारों उल्काओं (मूल अग्नि से टूट टूट कर स्फुलिंग को निकाल रहे) 'जाला सहस्साई पमुच्चमाणाई ये स्थान हजारों ज्वालाओं का ही मानों वमन कर रहे हैं 'इंगाल सहस्साइं पविक्खरमाणाई' हजारों अंगारों को ही अपने गणीइ वा तनी मनिन 'तुसागणीइ वा पनी भनित्याहि 'तत्ताई ॥ બધા સ્થાને મનુષ્યલકમાં અગ્નિના સંપર્કથી તપેલા રહે છે. આમાં કેટલાક લેઢાને ઓગાળવાના ભઠા વિગેરે રૂપ સ્થાને ઉષ્ણ સ્પર્શ માત્ર વાળા પણ હોય છે. તેથી તેની વિશેષતા બતાવતાં તેવા સ્થાને અને તેવી અગ્નિ કેવા प्रारना हाय छे! ते मताव छे. 'समजोइभूयाई तत्याने साक्षात् भनिना स्थानापन्न हाय छे. तना र १ छ, ते 'फुल्लकिसुयसमाणाई" खेसा કિંશુક–પલાશના ફૂલે જેવા અર્થાત્ કેસુડાના જેવા લાલ લાલ દેખાય છે, 'उक्कासहस्साई बिणि मुयमाणाई २ | Gesta (भू मनिया छूटेसा लिन) भनिने महा२ ४६3 छे. 'जालासहस्साई पमुच्चमाणाई' આ સ્થાને હજારે વાલાઓને જ જાણે વમન કરતા ન હોય તેવા હોય છે. 'इंगालसहस्साई पविक्खरमाणाई' | ॥राव्याने पातानी ४२थी જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006344
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages918
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size46 MB
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