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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२सू.२१ नारकाणां नरकभवानुभवननिरूपणम् २९३ विहरन्तीति-तिष्ठन्तीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तेणं तत्थ णिच्चे भीता' ते खलु नारका स्तत्र-रत्नप्रभा नरके नित्यम्सर्वकाले क्षेत्रस्वभावज महानिविडान्धकारदर्शनतो भीताः सर्वतः समुपजात शङ्कत्वात् । तथा-'णिच्च तसिया' नित्यं त्रस्ताः नित्यम्-सर्वकालं क्षेत्रस्वभावज महानिविडान्धकारदर्शनतस्त्रस्ता:-अतिशयेन भयभीताः-परमाधार्मिकदेव परस्परोदीरित दुःखसंपातभयात् त्रासमुत्पन्नाः । तथा-'णिच्चं छुहिया' नित्यं सर्वकालं क्षुधिता:-क्षुधया व्याप्ताः। तथा-'णिच्चं उव्विगा' नित्यं सर्वकालमुद्विग्नाः परमाधार्मिकदेव परस्परोदीरित दुःखानुभवतः तद्गतावासपराङ्मुखचित्ताः तथा-'णिचं उपप्पुआ' नित्यं-सर्वकालम् उपप्लुता उपप्लवेनोपेताः किस प्रकार के होकर नैरयिक भव का 'पच्चणुभवमाणा विहरंति' अनुभव करते है ? उत्तर में प्रभुश्री करते है 'गोयमा! तेणं तत्थ णिच्चं भीता' हे गौतम ! वे नारक वहां नरक में सर्वदा भयभीत होकर क्षेत्र स्वभाव से जन्य महागाढ अन्धकार के देखने से चारों और शङ्का युक्त होकर-तथा-णिच्चंतसिता' सर्वदा क्षेत्र स्वभाव से जन्य अन्धकार के देखने से धवडाये हुए होकर अथवा-परमाधार्मिक देवों के द्वारा आपस में एक दूसरे के पूर्वभवीय वैरो को प्रकट करने के कारण बदला लेने रूप कष्टो के आने से दुःखित होकर तथा-'णिच्चं छुहिया' सर्वदा भूख से पीडित होकर 'णिच्चं उव्विग्गा' सर्वदा उद्विग्न होकर-खेद खिन्न होकर-परमाधार्मिक देवों द्वारा आपस में याद कराये गये पूर्वभवों के वैरों के कारण एक दूसरे के आवास से पराड्रमुखचित्त होकर नित्य 'उपप्पुआ' उपद्रव युक्त होकर उस 'णिच्चं २ना यन नयि सबने। 'पच्चणुभवमाणा विहरंति' अनुमप ४२ छ, मा प्रशन उत्तम प्रभु गौतमत्वामीन ४९ छ, 'गोयमा ! ते णं तत्थ णिच्चं भीता' हे गौतम! ना त्या नसभा सहा भयभीत यछन क्षेत्रमाथी થવા વાળા મહા ગાઢ અંધકારને જોવાથી ચારે બાજુની શંકા યુકત થઈ ને तथा 'णिच्चं तसिता' सहा क्षेत्रमाथी यामधारा नेपाथी मन. રાયેલા થઈને અથવા પરમાધાર્મિક દેવે દ્વારા પરસ્પર એક બીજાના પૂર્વભવ ના વૈરેને પ્રગટ કરવાના કારણે બદલે લેવા રૂપ દુ;ખો આવવાથી દુઃખિત था तथा णिच्चं छहिया' मेशा भूमथा पी5 णिच्चं उठिवग्गा' सपा ઉદ્વિગ્ન થઈને અર્થાત ખેદ ખિન્ન થઈને પરમધામિક દેવે દ્વારા પરસ્પર યાદ કરાવવામાં આવેલ પૂર્વભવના વેરના કારણે એક બીજાની રહેઠાણથી પરાક भुम सित्ता यन नित्य 'उपप्पुआ 8५ धन "णिच्चं परमम જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006344
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages918
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size46 MB
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