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________________ १५४ जीवाभिगमसूत्रे हे गौतम! 'सत पुढवीओ पन्नत्ताओ' सप्तसंख्यकाः पृथिव्यः प्रज्ञप्ताः - कथिता इति, सप्त-भेदान् दर्शयति- 'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा ' तद्यथा - 'श्यणप्पभा जाव आहे सत्ता' रत्नप्रभा यावदधः सप्तमी यावत्पदेन शर्कराप्रभा बालुकाप्रभा पङ्कप्रभा धूमप्रभाः तमः प्रभा तमस्तमः प्रभा इति भेदात् सप्त नरकपृथिव्यः प्रज्ञप्ता इति । 'इमी से णं भंते ! श्यणप्पभाए पुढवीए' एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः 'असीउत्तर जोयणसयसहस्स बाहल्लाए' अशीतिसहस्रोचरयोजनयतसहस्रबाहल्योपेतायाः 'उवरिं' उपरि- उपरितनभागात् 'केवइयं' कियत्प्रमाणम् 'ओगाहिता' अवगाह्य - उपरितनभागात् कियदतिक्रम्येत्यर्थः ' हेहा' अधस्तात् 'केवइयं' कियत्प्रमाणम् ' वज्जित्ता' वर्जयित्वा - परित्यज्य 'मज्झे' मध्ये पूर्व में कहा गया विषय यदि दुवारा पूछा जाता तो उसमें कोई न कोई कारण विशेष अवश्य होता है अतः गौतम से प्रभु उत्तर के रूप में कहते हैं - 'गोमा !' हे गौतम! 'सत्त पुढवीओ पनत्ताओ 'पृथिवीयां सात कही गई हैं । 'तं जहां' जो इस प्रकार है- 'रयणप्पभा जाव अहे सत्तमा' रत्नप्रभा यावत् अधः सप्तमी इस तरह से 'रत्नप्रभा शर्करा प्रभा, बालुकाप्रभा, पङ्कप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा, तमस्तमःप्रभा' ये सात पृथिवियां हैं। 'इमी से णं भंते । रयणप्पभाए पुढवीए' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के जो कि 'असी उत्तर जोयण सय सहस्स बाहल्लाए' एक लाख अस्सी हजार योजन की मोटी है 'उवरिं' उपरितन भाग से 'केव इयं ओगाहित्ता' कितनी दूर जाने पर और 'हेट्ठा केवइयं वजित्ता' नीचे का कितना भाग छोडकर 'मज्झे केवइए 'बीच में कितने योजन પહેલાં કહેવામાં આવેલ વિષય ને ફરીથી પૂછવામાં આવે તે તેમાં કંઈને કંઈ વિશેષકારણ જરૂર હોય છે તેથી ગૌતમસ્વામીને પ્રભુ ઉત્તર આ पतां हे छे } 'गोयमा !' हे गौतम ! 'सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ' पृथ्वीये सात वामां आवे छे. 'त' जहाँ' ते या प्रमाणे छे. 'रयणप्पभा जाव अहे सत्तमा ' રત્નપ્રભા પૃથ્વી યાવત્ અધઃસપ્તમી આ પ્રમાણે રત્નપ્રભા, શર્કરાપ્રભા, વાલુકા પ્રભા, પ`કપ્રભા, ધૂમપ્રભા, તમઃપ્રભા અને તમસ્તમ;પ્રભા આ સાત પૃથ્વીયો छे. 'इमीसे णं भंते रयणप्पभाए पुढवीए' हे भगवन् या रत्नप्रभा पृथ्वीना ने 'असीउत्तर जोयण सयसहस्स बाहल्लाए, भेड साथ એ‘સી હજાર યોજન नी विशालता वाणी छे, 'उवरि' उपरना लागथी 'केवइयं ओगाहित्ता' डेंटले दूर गया यही भने 'हेट्ठा केवइयं वज्जित्ता' नीथेनेो डेटलो लाग छोड़ी छे જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006344
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages918
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size46 MB
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