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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्रति० २ पुरुषाणामन्तरकालनिरूपणम् ४८९ कामात .......... स्यान्तरं प्रदर्य सम्प्रति-तिर्यक् पुरुषविषयकपुरुषस्यान्तरमाह-'तिरिक्खजोणिय' इत्यादि, 'तिरिक्खजोणियपुरिसाण जहन्नेणं अंतो मुहत्तं' तिर्यग्योनिकपुरुषाणां पुरुषत्वस्यान्तरं जधन्येनान्तमुहूर्तमानं भवति एतावत् कालस्थितिकमनुष्यादिभवेन । व्यवधानात् 'उक्कोसेणं वणस्सइकालो' उत्कर्षेण वनस्पतिकालोऽसंख्येयपुद्गलपरावर्ताख्यः तावता कालेन मुक्तयभावे नियमतः पुरुषत्वभावात् ‘एवं जाव खहयरतिरिक्खजोणियपुरिसाणं' एवं सामान्यतः तिर्यग् पुरुषाणां यथा पुरुषत्वस्यान्तरं कथितं तेनैव रूपेण विशेषविचारे यावत्पदेन जलचरपुरुषाणा तथा खेचरतिर्यक्पुरुषाणामपि पुरुषत्वस्यान्तरं प्रत्येकं जधन्योत्कर्षाभ्यां कथितं तदेव सर्वमिहापि ज्ञातव्यमिति ॥ सम्प्रति मनुष्यपुरुषत्व विषयकान्तरप्रातपादनार्थमाह-'मणुस्स' इत्यादि, 'मणुहोते हैं । इस प्रकार सामान्य रूप से पुरुषत्व का अन्तर प्रकट कर अब सूत्रकार विशेष रूपसे तिर्यक् पुरुष विषयक पुरुषत्व का अन्तर प्रकट करने के लिए अतिदेश द्वारा इस सम्बन्ध में कहते हैं-" तिरिक्खजोणियपुरिसाणं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो" तिर्यग्योनिक पुरुषो के पुरुषत्व का अन्तर जधन्य से एक अन्तर्मुहूर्त का पड़ता हैं और उत्कृष्ट से वनस्पति के काल के प्रमाण अनन्त काल का पड़ता है और वनस्पति काल असंख्यात पुग्द्ल परावर्त रूप होता है । ‘एवं जाव खहयरतिरिक्खजोणियपुरिसाण" जैसे अन्तर कथन सामान्य से तिर्यक् पुरुषों के पुरुषत्व का कहा गया है उसी प्रकार विशेषरूप से जलचर स्थलचर, और खेचर इन पुरुषों के पुरुषत्व का भी अन्तर कह लेना चाहिए, इस तिर्यक् स्त्री प्रकरण में जो अन्तर जघन्य और उत्कृष्ट से कहा गया है वही सब यहां पर भी जानना चाहिये। अब सूत्रकार मनुष्यपुरुषत्व विषयक अन्तर समझाने के लिये कहते हैं इस में गौतमने प्रभु से ऐसा पूछा है-“ मणुस्सपुरिसाणं भते ! केवइयं कालं अंतरं होई” हे અંતર બતાવીને હવે સૂત્રકાર વિશેષ પ્રકારથી તિર્થક પુરૂષ સંબંધી પુરૂષ પણાનુ અંતર मतावा भाटे मा सभा गतिशि द्वारा छ- 'तिरिक्खजोणियपुरिसाणं अंतोमुहले उक्कोसेणं वणस्सइकालो" तिय योनि ५३१ पानुमत न्यथा ये मतभुइतनु હોય છે, અને ઉત્કૃષ્ટથી વનસ્પતિના કાળ પ્રમાણનું એટલે કે અનંત કાળનું અંતર પડે छ. या वनस्पतिनामसज्यात पुस ५२॥ ३५ डाय छ 'एवं जाव खहयर. तिरिक्खजोणियपुरिसाणं" प्रमाणे सामान्य ५॥थी तिय पुरुषानुमत२ ४ छ, એજ પ્રમાણે વિશેષ જલચરત્નસ્થલચર-અને ખેચર પુરૂષોના પુરૂષ પણાનું અંતર પણ સમજી લેવું અર્થાત તિર્ય સ્ત્રી પ્રકરણમાં જે અંતર જઘન્યથી અને ઉત્કૃષ્ટથી કહેવામાં આવ્યું છે, એજ સઘળું કથન અહિયાં પણ સમજવું. હવે સૂત્રકાર મનુષ્ય પણ સંબંધી અંતર સમજાવવા માટે કથન કરે છે–તેમાં ગૌતમ स्वामी प्रसुने ये पूछयु छ ,-"मणुस्सपुरिसाणं भंते ! केवइयं कालं अंतरं होइ" ८८ જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006343
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages656
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size37 MB
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