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________________ ४३६ जीवाभिगमसूत्रे मानमिति, एवं जाव अंतरदीवियाओ' एवम् सामान्यतो यथा अकर्मभूमिकस्त्रियाः स्त्रीत्वस्यान्तरकालः कथितः स्तथैव - तेनैव रूपेण यावदन्तरद्वीपिकाः स्त्रिय इति, अत्र यावत्पदेन हैमवतैरण्यवत - हरिवर्षरम्यकवर्ष - देवकुरूत्तरकुरुस्त्रीणां ग्रहणं भवति, तेन हैमवतक्षेत्रजमनुष्य स्त्रीतआरम्यान्तरद्वीपजमनुष्यस्त्रीणां ग्रहणं भवति । ततः पूर्वोक्त हैमवतादिक्षेत्रस्त्रियाः स्त्रीत्वस्या - न्तरकालमानं जन्मापेक्षया जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्ताभ्यधिकदशवर्षसहस्राणि उत्कर्षतो वनस्पतिकालः संहरणापेक्षया जधन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षेण वनस्पतिकाल एवेति । सम्प्रति-देवस्त्रीणामन्तरप्रतिपादनार्थमाह-'देवित्थीणं' इत्यादि, "देवित्थीणं सव्वासिं जहनेणं अंतोमुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो' देवस्त्रीणां सर्वासां जघन्येनान्तर्मुहूर्तम् उत्क तक वनस्पति आदिकों में परिभ्रमण करके फिर वहां से किसी द्वारा संहत होजावे अकर्मभूमिमें स्त्री के पर्याय से उत्पन्न हुई वह इस प्रकार से वह पुनः अकर्म भूमिक मनुष्य स्त्री होने में वनस्पति काल के प्रमाण काल से अन्तर वाली होती है । "एवं जाव अंतर दीवियाओ" जिस प्रकार से सामान्य अकर्म भूमिक स्त्री का पुन: वहीं पर स्त्री रूप से होने का अन्तर काल कहा गया है उसी प्रकार से यावत्पद से गृहीत हैमवत मनुष्य स्त्रीका हैरण्यवत मनुष्यस्त्री का हरिवर्ष मनुष्य का रम्यक वर्ष मनुष्य स्त्री का देवकुरुमनुष्यस्त्री का और उत्तर कुरुमनुष्यस्त्री का तथा अन्तर द्वीप की मनुष्यस्त्री का पुनः वहीं पर मनुष्यस्त्री होने का अन्तर काल जन्मकी अपेक्षा लेकर जधन्य से एक अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष का और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल प्रमाण काल का है ऐसा जानना चाहिये तथा संहरण की अपेक्षा से जधन्य अन्तरकाल एक अन्तरमुहूर्त्त का है और उत्कृष्ट काल वनस्पति काल प्रमाण अनन्त काल का है । 66 अब सूत्रकार देवस्त्रियों के अन्तर काल का प्रतिपादन करते हैं- इसमें गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है - "देवित्थीण भते ! केवइयं कालं अंतरं होई" हे भदन्त ! देवस्त्रियों का દ્વારા સહૃતથઈ જાય તા અકર્મ ભૂમિની મનુષ્ય સ્ત્રી થવામાં વનસ્પતિ કાલના પ્રમાણ કાલથી અંતર વાળી હોય છે. एवं जाव अंतरदीवियाओ” २ प्रमाणे सामान्य અક ભૂમિની સ્રીનુ ફરી થી ત્યાંનીજ સ્ત્રી થવાના તરકાળ કહેલ છે, એજ પ્રમાણે યાવપદથી ગ્રહણકરાયેલ હૈમવત મનુષ્ય સ્ત્રી ના હૈરણ્યવત મનુષ્યશ્રીને હરિવ મનુષ્યશ્રીના રમ્યકવની મનુષ્ય સ્રીને દેવકુરૂની મનુષ્યસ્રીનેા અને ઉત્તરકુરૂની મનુષ્યસ્રીને તથા અતરદ્વીપની મનુષ્ય સ્રીને ફરીથી ત્યાં જ મનુષ્ય સ્રી થવાના અંતરકાલ જન્મની અપેક્ષાથી જધન્યથી એક અંતમુહૂત અધિક દસહજાર વર્ષના અને ઉત્કૃષ્ટથી વનસ્પતિકાલ પ્રમાણકાલના છે. તેમ સમજવુ તથા સંહરણની અપેક્ષાથી જઘન્ય અ ંતરકાલ એક અંતર્મુહૂતના છે. અને ઉત્કૃષ્ટકાલ વનસ્પતિકાલ પ્રમાણ અનંતકાલના હવે સૂત્રકાર ધ્રુવિયેના અંતરકાલનું પ્રતિપાદન કરે છે. આમાં ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુને येवु पूछ छे - "देवित्थीण भंते! केवइयं कालं अंतरं होई " हे भगवन् हेवियानो જીવાભિગમસૂત્ર —
SR No.006343
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages656
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size37 MB
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