SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 352
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्रति० १ देवस्वरूपनिरूपणम् ३३९ उत्कर्षेण योजनशतसहस्रम् उत्तरवै क्रियिकी शरीरावगाहना उत्कर्षतो लक्षयोजन प्रमाणा भवतीति अवगाहना द्वारम् ॥ संहननद्वारे - 'सरीरगा छण्हं संघयणाणं असंघयणी' देवानां शरीराणि षण्णं संहननानां मध्येऽसंहननानि - संहनन रहितानि भवन्तीत्यर्थः । कुतो देवानां शरीराणि संहननरहितानि भवन्ति तत्राह - 'वट्ठी' इत्यादि, 'णवट्टी' नैवास्थीनि 'णेव छिरा' नैव शिराः 'जेव पहारू' नैव स्नायवः, अतस्तेषाम् 'णेव संघयणमत्थि' नैव संहननमस्ति, यतो देवानां शरीरेषु न विद्यतेऽस्थीनि नैव विद्यन्ते शिराः, नापि स्नायवः संहननमस्थिनिचयात्मकमेवातोऽस्थ्यादीनामभावात् न देवशरीरे संहननानि भवन्तीति भावः । ननु अस्थ्यादिविलक्षणसमुदायस्यैव शरीरमिति संज्ञा भवति तदत्रास्थ्याद्यभावात् कथं देवानां शरीरमिति व्यपदेशः तत्राह - 'जे पोग्गला' इत्यादि, 'जे पोग्गला इहा कंता जाव ते तेसिं संधायत्ताए परिणमंति' ये पुद्गला इष्टाः मनस इच्छामापन्नाः, तत्रा संघयणाणं असंघयणी" देवों के शरीर छह संहननो से ही रहित होते हैं । इसलिये असंहननी कहे गये हैं । इनके शरीर संहननों से रहित इसलिये होते हैं कि ये "जेबट्टी" हड्डी से विहीन होते हैं । " णेव छिरा" इन में शिराएँ नहीं होती हैं' 'णेव हारू" इनमें स्नायुएँ नही होती है । इसलिये "णेव संघयणमत्थि " इनमें अस्थियों के निचय रूप जो संहनन है वह नहीं है । शंका- जो अस्थि आदिकों का विलक्षण समुदाय रूप होता है उसी की शरीर ऐसी संज्ञा होती है । तो फिर जब देवों के अस्थि हड्डी -आदि का समूह ही नहीं होता फिर उनके शरीर है ऐसा व्यपदेश कैसे हो सकता है । तो इस शंका को दूर करने के लिये सूत्रकार कहते हैं -- " जे पोग्गला, इट्ठा, कता जाव ते तेसि संधायत्ताए परिणमंति" जो पुद्गल इष्ट- मनकी इच्छा को रुचते हैं - अर्थात् એકલાખ ચેાજન પ્રમાણની છે. આ એક લાખ ચાજન અવગાહનાવાળા આભિગ્ય જાતિનાદેવ જયારે ઐરાવત હાથીનું રૂપ ધારણ કરે છે. ત્યારની અપેક્ષાથી કહેલ છે. सांडुननद्वारभां “सरीरगा छण्हं संघयणाणं असंधयणी" हेवाना शरीर छ सहना વિનાના જ હાય છે. તેથી તેઓને અસહનની કહ્યા છે. તેના શરીર સહનનેા વિનાના भेटला भाटे उस छे - तेभने ' शेवट्ठी" डाउडा होता नथी. "णेव छिरा" तेथेोभा शिरामी भेटते हैं नाडीयो होती नथी. "णेव ण्हारू" तेयाने स्नायुयो होता नथी. तेथी "व संघयणमत्थि" तेयामां अस्थि उडेतां डाउउना सभूड३५ સહનન હાય छे, ते होतु नथी. શંકા હાડકા વિગેરેના વિલક્ષણ સમુદાય રૂપ જે હાય છે, તેને શરીર એવી સજ્ઞા કહેલ છે. તેા પછી તેને શરીર છે, એવા વ્યપદેશ કેવી રીતે થઇ શકે છે? या शञ्जाना सभाधान भाटे सूत्र छे - जो पोगला, इट्ठा, कंता, जाव ते तेसि संधाय त्ताप परिणमंति" के युगल ष्टि, भननी छाने ३ये छे, अर्थात् रिछाना જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006343
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages656
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy