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________________ जीवाभिगमसूत्रे पञ्चगतिकाः मनुष्येभ्य उद्धृत्य नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवसिद्धिरूपासु पञ्चसु गतिषु गमनात् । तथा - चतुर्भ्यो नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवेभ्य उदवृत्य मनुष्येषु आगमनात् पञ्चगतिकाश्चतुरागतिकाः कथ्यन्ते । 'परित्ता संखेज्जा पन्नत्ता' प्रत्येकशरीरिणः संख्याता:- संख्यातकोटि प्रमाणवात् प्रज्ञप्ताः कथिता इति । ३३२ - सम्प्रति– गर्भजमनुष्यप्रकरणमुपसंहरन्नाह - ' से त्तं मणुस्सा' ते - उपर्युक्ताः गर्भजमनुष्याः शरीरादि गत्यागतिद्वारैर्निरूपिता इति ॥सू० २७ ॥ गर्भजमनुष्यान् निरूप्य देवान् निरूपयितुमाह-- ' से किं तं देवा' इत्यादि । मूलम् —' से किं तं देवा ? देवा चउधिहा पन्नता, तं जहा - भवणबासी । वाणमंतरा - जोइसिया । वेमाणिया । से किं तं भवणवासी ? भवणवासी दसविहा पन्नत्ता । तं जहा असुरा जाव थणिया । से तं भवणवासी । से कि तं वाणमंतरा ? वाणमंतरा देवभेदो सव्वो भाणियव्वो जाव ते सामसओ दुविहा पन्नत्ता । तं जहा - पज्जत्ताः य अपज्जता य । गतिक और कतिआगतिक होते हैं ? उत्तर में प्रभुने कहा है- "गोयमा ! पंच गइया चउरागइया" ये गर्भज मनुष्य पांचगतियों में जाने वाले होते हैं और चार गतियों से आये हुए होते हैं "पांच गतियों में जाने वाले होते हैं" इसका भाव ऐसा है कि ये नारकतिर्यञ्च, मनुष्य देव और सिद्धिगति में जाते हैं । और यहां ये नारकतिर्यञ्च, मनुष्य और देव गतिरूप चार 1 गतियों से आकर जन्मलेते हैं इसलिए चतुरागतिक होते हैं । " परित्ता संखेज्जा पन्नत्ता" प्रत्येक शरीरी संख्यात कोटि प्रमाण होने से संख्यात कडेगये हैं । "सेत्तं मणुस्सा" इस प्रकार से शरीरादि से लेकर गत्यागति द्वारों तक कहा गया यह मनुष्यों का प्रकरण समाप्त हुआ । सू० २६ ॥ आहे छे ! "गोयमा ! पंच गइया चउरागइया" आ गर्लन मनुष्य यांय गतियोंमां भवा વાળા હોય છે, અને ચાર ગતિયામાંથી આવવાવાળા હેાય છે. પાંચ ગતિયેામાં જવાવાળા હાય છે' એના ભાવ એ છે કે તેઓ નારકગતિ, તિય‘ચગતિ, મનુષ્યગતિ, દેવગતિ અને સિદ્ધિગતિમાં જાય છે. અને નારક, તિહુઁચ મનુષ્ય અને દેવગતિરૂપ ચાર ગતિયામાંથી भावीने या गर्लभ मनुष्योभां न्म से छे. तेथी खाने यतुराजति ह्या छे. 'परित्ता संखेज्जा पन्नत्ता" प्रत्ये शरीरी संख्यात टि प्रभाणुवाजा होवाथी सभ्यात उडेला छे. “से त्तं मणुस्सा" या प्रमाणे शरीरद्वार विगेरे द्वाराथी बने गत्यागतिद्वार सुधी उडेल આ મનુષ્ય સબંધી પ્રકરણ સંપૂર્ણ થયું. પ્રસૂ૦ ૨૬।। જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006343
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages656
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size37 MB
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