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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्रति० १ संमूर्किछमजलचर तिर्यक् पञ्चेन्द्रियजीवनिरूपणम् २३५ लोकमध्ये एव एतेषामवस्थानात् षइदिग्भ्य आगतान् पुद्गलानाहरन्तीति भावः । 'उववाओ तिरियमणुस्सेर्हितो' उपपातस्तिर्य मनुष्येभ्य आगत्यात्र समुत्पद्यन्ते इति भावः 'नो 'देवेर्हितो नो नेरइए हिंतो' नो देवेभ्यो नो नैरयिकेभ्यः, देवनारकाभ्यामुद्रवृत्य अत्र नोत्पद्यन्ते इति भावः । 'तिरिएहिंतो असंखेज्जवासाउयवज्जेर्हितो' यदि तिर्यग्भ्य उपपातस्तदा असंख्येय वर्षायुष्कवर्जेभ्यस्तिर्यग्भ्य एवात्रोपपातो भवतीति । 'अकम्मभूमगअंतरदीवग असं खेज्जवासाउयवज्जेर्हितो मणुस्सेहिंतो' अकर्मभूमिकान्तरद्वीपासंख्ये य वर्षायुष्केभ्यो मनुष्येभ्यः, यदि संमूच्छिमजलचरजीवानां मनुष्येभ्य उपपातो भवति तदा अकर्म भूमिकान्तरद्वीपका संख्येयवर्षायुष्कवर्जेभ्यो मनुष्येभ्य उपपातो भवतीत्येवं वक्तव्यमिति । 'ठिई जहनेणं अंतोमुहुतं' जलचरसंमूच्छिमपञ्चेन्द्रियजीवानां स्थितिर्जधन्येनान्तर्मुहूर्तम् । 'उक्कोसेणं पुव्वकोडी' उत्कर्षेण पूर्वकोटी । ' मारणंतिय समुग्धा एणं दुविहासे आगत पुद्गल द्रव्यों का होता है। क्योंकि ये लोक के मध्य में ही रहते हैं । “उववाओ तिरियमणुस्से हिंतो " तिर्यञ्च और मनुष्यों में से आये हुए जीव इन जलचरों में उत्पन्न होते हैं । 'नो देवेर्हितो नो नेरइए हिंतो' इनमें देवों से और नैरयिकों में से आये हुए जीव उत्पन्न नहीं होते हैं । 'तिरिए र्हितो असंखेज्जवासाउयवज्जेसु' जो तिर्यञ्चों से आते हैं वे असंख्यात वर्षायुष्कतिर्यञ्चों से आये हुए जीव यहां उत्पन्न नहीं होते हैं । 'अकम्म भूमगअंतरदीवगअसं खेजवा साउयवज्जेहिंतो मणुस्सेहिंतो' इसी प्रकार यदि मनुष्यों में से आये हुए जीवों से इनका उपपाद होता है तो इनमें अकर्म भूमिक अन्तरद्वीप के मनुष्य जो कि असंख्यात वर्ष की आयुवाले होते हैं उत्पन्न नहीं होते हैं । 'ठिई जहन्नेणं अंतो मुहुत्तं' इन जलचर संमूच्छिमजीवों की स्थिति जधन्य से एक अन्तर्मुहूर्त की होती है और 'उक्को सेणं पुव्वकोडी' उत्कृष्ट से एक पूर्वकोटिकी होती है । 'मारणंयोगवाज होय छे. 'आहारो छद्दिसि' तेयोनो आहार छहिशा ओभांथी अविद्या युद्ध· द्रव्यो न होय छे, प्रेम तेम बोहनी मध्यभां रहे छे. 'उववाओ तिरियमगुस्सेहितो" तिर्यय मने मनुष्याभांथी भावेसा भवे। या ४सय शमां उत्पन्न थाय छे. "नो देवहितो नो नेरइपहितो" तेमां हेवोभांथी अने नैरयि अभांथी आवेला व उत्पन्न थता नथी. 'तिरिएर्हितो असंखेज्जवासाउयवज्जेसु' थे। तिययोभांथी भावे छे तेथे सातवर्षायुष्ड तिर्ययोभांथी आवेसा वा अहियां उत्पन्न थता नथी. 'अकम्मभूमग अंतरदीवगअसं खेज्जवासाउयवज्जे हितो मणुस्सेहितो' मेन प्रभारी के अनु. ખ્યામાં થી આવેલા જીવામાંથી તેઓના ઉપપાત—ઉત્પત્તિ થાય તે તે અકમ ભૂમિજ અંતરદ્વીપના મનુષ્યા કે જેઆ અસખ્યાતવષઁની આયુષ્યવાળા હોય છે. તેમાંથી થતી नथी. 'ठिई जहण्णेणं अंतोमुहुत्त' मा જલચર સ’મૂમિ જવાની સ્થિતિ જધન્યથી अतर्मुहूर्तनी होय छे भने “उक्कोसेणं पुव्वकोडी' उत्सृष्टथी ये पूर्व भेटिनी જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006343
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages656
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size37 MB
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