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________________ १९४ जीवाभिगमसूत्रे दृष्टयः इत्युक्तम्, सम्यग् मिध्यादृष्टिः सन् जीवा न तत्रोत्पद्यन्ते तदवस्थायां जीवस्य मरणासंभवात्, तदुक्तम्- 'न सम्ममिच्छो कुणइ कालं' इति वचनात् । दर्शनद्वारे - 'नो ओहिदंसणी नो चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी नो केवलदंसणी' ते द्वीन्द्रियजीवा नो अवधिदर्शनिनो भवन्ति न वा चक्षुर्दर्शननो भवन्ति किन्तु अचक्षुर्दर्शनिनः स्पर्शनरसनेन्द्रियापेक्षया भवन्ति तथा नो केवलदर्शननो भवन्तीति । ज्ञानद्वारमाह- 'ते णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी' ते द्वौन्द्रियजीवाः खलु भदन्त ! किं ज्ञानिनो भवन्ति अज्ञानिनो वा भवन्तीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! ' णाणी वि अण्णाणी वि' ते द्वीन्द्रियजीवा ज्ञानिनोऽपि भवन्ति सास्वादन सम्यक्त्वापेक्षया तथा अज्ञानिनोऽपि भवन्तीति । 'जे नाणी ते नियमा दुण्णाणी' ये ज्ञानिनो भवन्ति ते नियमात् द्विज्ञानिनो भवन्ति, 'तं जहा' तद्यथा'आभिणिबोहियनाणी सुयनाणी य' आभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनश्च । अपर्याप्तावस्थायां मति मिथ्यादृष्टि मिश्रदृष्टि होते हुए वहां उत्पन्न नहीं होते हैं, सम्यग्रमिध्यादृष्टि अवस्था में जीव की मृत्यु ही नहीं होती है क्योंकि शास्त्र में उसका निषेध है जैसे – “न सम्ममिच्छो कुणइकालं" सम्यगूमिध्यादृष्टि जीव काल नहीं करता है । दर्शनद्वार में ये "नो ओहिदंसणी नो चक्खुदंसणी, अचक्खुदंसणी नो केवलदंसणी” न अवधिदर्शनी होते हैं, न चक्षु दर्शनी होते हैं, किन्तु अचक्षुदर्शनी होते हैं । इसी से ये केवलदर्शनी भी नहीं होते हैं इन्हें जो अचक्षुदर्शनी कहा है - वह स्पर्शन और रसना इन दो इन्द्रियों की अपेक्षा से कहा हैं । हे भदन्त ! ज्ञानद्वार में वे क्या " नाणी अन्नाणी" ज्ञानी होते हैं ? अथवा अज्ञानी होते हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं- "णाणी व अण्णाणी वि" हे गौतम! ये ज्ञानी भी होते हैं और अज्ञानी भी होते हैं। ज्ञानी होते हैं तो वे नियम से दो ज्ञानवाले होते हैं - "तं जहा' जैसे - "आभिणिबोहियनाणी સ્વભાવથી તથાવિધ પરિણામાનેા એમને ચેગ થતા નથી. આ કારણથી તેઓ સભ્યમિથ્યાદૃષ્ટિ—એટલેકે મિશ્રર્દષ્ટિ રૂપે ત્યાં ઉપન્ન થતાનથી. સમ્યગ્મિાદષ્ટિ અવસ્થામાં જીવતું मृत्यु थतु नथी. प्रेम शास्त्रमां तेनेो निषेध छे. प्रेम - "न सम्ममिच्छो कुणइ कालं" सम्यग्मिथ्यादृष्टिवाणा भवो आज उरता नथी. अर्थात् भरयु याभता नथी. दर्शनद्वारभां-तेथे। "नो ओहिदंसणी नो चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी नो केवलदंसणी" अवधी हर्शन वाजा होता नथी. तथा यक्षुहर्शनवाणा पशु होता नथी परंतु અચક્ષુદાની હોય છે. તથા તેઓ કેવળદનવાળા પણ હાતા નથી. તેઓને જે ‘ચક્ષુ દર્શોની કહ્યા છે તે સ્પન અને રસના આ એ ઈંદ્રિયાની અપેક્ષાથી કહેલા છે. હવે ગૌતમ स्वामी ज्ञानद्वारना सधमां अने पूछे छे - "नाणी अन्नाणी" हे भगवन् तेयो ज्ञानी હાય છે ? કે અજ્ઞાની હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે— “णाणी व अण्णाणि वि" हे गौतम! तेथे। ज्ञानी पशु होय छे भने अज्ञानी पशु होय छे. "जे गाणी ते णियमा दुण्णाणी' ले तेथे ज्ञानी होय तो तेथे नियमथी જ્ઞાનવાળા જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006343
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages656
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size37 MB
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