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________________ ६४८ राजप्रश्नीयसूत्रे दाक्षिणात्या स्तम्भपतिः शेषं तदेव सर्वम् यत्रैव सिद्धायतनस्य उत्तरीयं द्वारं तदेव सर्वम् , यत्रैव सिद्धायतनस्य पौरत्त्यस्य द्वारं तत्रैव उपागच्छति तदेव । यौव पौरस्त्यो मुखमण्डपो यत्रैव पौरस्त्यस्य मुखमण्डपस्य बहुमध्य देशभागस्तत्रैव उपागच्छति, तदेव पौरस्त्य खलु मुखमण्डपस्य दाक्षिणात्ये द्वारे पाश्चात्त्या स्तम्भपतिः, उत्तरीये द्वारे तदेव । पौरस्त्ये द्वारे तदेव । सब कार्य किया (जेणेव सिद्धाययणस्स उत्तरिल्ले दारे दाहिणिल्ला खभपंती तं चेव, जेणेव सिद्धाययणस्स पुरथिमिल्ले दारे, तेणेव उवागच्छइ तं चेव) इसके बाद सिद्धायतनके उत्तरीय द्वार पर आया, यहां पर भी उसने द्वारशाखाओं के प्रमार्जनादि से लेकर धूपदान देने तक के सब कार्य किये. इसके बाद वह सिद्धायतन के पौरस्त्य द्वार पर आया, वहां पर भी उसने वही सब प्रमार्जनादि से लेकर धूपदानतक का सब कृत्य किया. (जेणेव पुरत्यिमिल्ले मुहमंडवे जेणेव पुरथिमिल्लस्स मुहमंडवस्स बहुमज्झ देसभाए तेणेव उवागच्छइ तं चेव) इसके बाद वह पौरस्त्यमुखमंडय पर और उस पौरस्त्यमुखमंडप के बहुमध्यदेशभाग पर गया. वहां उसने अक्ष पाटक, मणिपीठिका और सिंहासन इन सब की प्रमार्जना आदि की एवं धूपदान देने तक के और भी बाकी के सब कार्य किये. (पुरस्थिमिल्स्स णं मुहमंडवस्स दाहिणिल्ले दारे पच्चस्थिमल्ला खभपंती उत्तरिल्ले दारे तं चेव) इसके बाद पौरस्त्यमुखमंडप के दक्षिणात्य द्वार में जो पाश्चात्य स्तंभ पंक्ति थी वहां पर आया, वहां आकरके उसने वहां के स्तंभो को शालभञ्जिकाओं को एवं व्यालरूपों को प्रमार्जित किया, और धूपदानतक के सुधीनुसत्राय सपन्न यु. (जेणेव सिद्धाययणस्स उत्तरिल्ले दारे दाहिणिला खंभपत्ती तं चेव, जेणेव सिद्धाययणस्स पुरथिमिल्ले दारे, तेणेव उवागच्छइ त चेव) ત્યારપછી તે સિદ્ધાયતના ઉત્તરીય દ્વાર તરફ ગયા. ત્યાં પણ તેણે દ્વારશાખાઓના प्रमाथी भांडी धूपहान सुधीन। मघi - पूरा . ( जेणेव पुरथिमिल्ले मुहमंडवे जेणेव पुरथिमिल्लास्स मुहमंडवस्स बहुमज्झदेसभाए तेणेव उवागच्छइ तं चेव) ત્યારપછી તે પરત્વ મુખમંડપ અને પરિત્ય સુખમંડપના બહુમધ્યદેશ ભાગ તરફ ગયા. ત્યાં તેણે અક્ષપાટક, મણિપીઠિકા અને સિંહાસન આ બધાની પ્રમાના वगेरे ४२। सने त्य२५छी धूपहान सुधानी शेष माठियपूरी ४ (पुरथिमिल्लस्स णं मुहमंडवस्स दाहिणिल्ले दारे पञ्चत्थिमिल्ला खंभपत्ती उत्तरिल्ले दार तं चेव) त्या५७। તે પિરસ્ય મુખમંડપના દાક્ષિણાત્ય દ્વારમાં જે પાશ્ચાત્ય સ્તભપંક્તિ હતી ત્યાં ગયો. ત્યાં જઈને તેણે ત્યાંનાં સ્તંભને, શાલભંજિકાઓને અને વ્યાલરૂપને પ્રમા શ્રી રાજપ્રક્ષીય સૂત્રઃ ૦૧
SR No.006341
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1990
Total Pages718
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size39 MB
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