SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 635
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुबोधिनी टीका. सू. ९१ सूर्याभदेवस्य अलङ्कारधारणादिवर्णनम् ६२३ श्वेतं रजतमय विमलं सलिलपूर्ण मत्तगजमुखाकृतिकुम्भसमानं भृङ्गारं प्रगृह्णाति, प्रगृह्य यानि तत्र उत्पलानि यावत् शतसहस्रपत्राणि तानि गृह्णाति. गृहीत्वा नन्दायाः पुष्करिणीतः प्रत्युत्तरति, प्रत्युत्तीर्य यत्रैव सिद्धायतनं तत्रैव प्राधारयद् गमनाय ॥ सू० ९१ ॥ टीका-'तएणं से' इत्यादि ततःखलु स सूर्याभो देवः केशालङ्कारेण= केशप्रसाधनरूपेण, अलङ्कारेण, माल्यालङ्कारेण पुष्पमालादिरूपेण अलङ्कारेण, आभरणालङ्कारेण हारादिरूपेणालङ्कारेण वस्त्रालङ्कारेण-देवदूष्ययुगलरूपेण अलउसने अपने हाथों एवं चरणोंको धोया (पक्खालित्ता आयते चोक्खे परमा सुइभूए एगं महं सेयं रययामयं विमलं सलिलपुण्णं मत्तगयमुहागिकुंभ समाणं भिंगारं पडिगिण्हइ) करचरण धोकर उसने आचमन किया-आचमन करके वह शुद्ध हुआ, इसतरह परमशुचिभूत हुए उसने एक विशाल, रजत की बनी हुई विमल, निर्मलजलसे भरी हुइ ऐसी झारीको जो कि मत्तगजराज के मुख की आकृति के समान थी उठाया-अर्थात् उसमेंसे भरा (पगिण्हित्ता जाई तत्थ उप्पलाई जाव सयसहस्सपत्ताई ताई गिण्हइ, गिहित्ता नंदाओ पुक्खरिणीओ पच्चुत्तरइ, पच्चुत्तरित्ता जेणेव सिद्धाययणे तेणेव पहारेत्थ गमणाए) झारीको भरकर फिर उसने जितने भी वहां उत्पल-कमल थे यावत् शतसहस्रदलवाले कमल थे उन सबको वहां से लिया, लेकर वह उस नन्दापुष्करिणी से बाहर निकलवर फिर उसने उस और जानेका निश्चय किया कि जिस और सिद्धायतन था.। टीकार्थ-इसका इसी मूल अर्थके अनुरूप है। सू० ९१ ॥ लित्ता आयंते चोक्खे परमसूइभूए एगं महं सेयं रययामयं विमलसलिलपुण्णं मत्तगयमुहागिइकुंभसमाण भिंगारं पडिगिण्हइ) २५॥ धो न तो सायमन यु" આચમન કરીને તે શુદ્ધ થયો. આ પ્રમાણે પરમ શુચિભૂત થયેલા તેણે એક વિશાળ ચાંદીની બનેલી વિમળ, નિર્મળ પાણીથી ભરેલી એવી ઝારી કે જે મત્ત ०४२१४ना भुमनी माति व इती-पीथी भरी. (पगिण्हित्ता जाई तत्थ उप्पलाई जाव सयसहस्सपत्ताइ ताई गिण्हइ, गिण्हित्ता नंदाओ पुक्खरिणीओ पच्चुत्तरइ पच्चुत्तरित्ता जेणेय सिद्धायणे तेणेव पहारेत्थ गमणाए) आरीने पोथी ભરીને પછી તેણે ત્યાં જેટલાં ઉ૫લો-કમળો હતાં-ચાવત્ શતસહસ્ત્રદલવાળા કમળો હતા તે બધાને ત્યાંથી લીધાં અને લઈને તે નંદા પુષ્કરિણી બહાર નીકળીને પછી તેણે સિંહાસન તરફ જવાનો નિશ્ચય કર્યો. આ સૂત્રને ટીકાર્ય भूदाथ प्रमाणे । छ. ।। सू. ८१॥ श्रीशन प्रश्नीय सूत्र:०१
SR No.006341
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1990
Total Pages718
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy