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________________ ५७८ __राजप्रश्नीयसूत्रे यत्रैव पद्मपुण्डरीकहंदस्तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागत्य हृदोदकं गृह्णन्ति, गृहीत्वा यानि तत्र उत्पलानि यावत् शतसहस्रपत्राणि तानि गृह्णन्ति गृहीत्वा यत्रैव हैमवतै रवतानि वर्षाणि यत्रैव रोहिता-रोहितांशा-सुवर्णकूला-रूप्यकूलाः महानद्यस्तत्रैव उपागच्छन्ति, सलिलोदकं गृहन्ति, गृहीत्वा उभयतः कूलमृत्तिकां गृह्णन्ति, गृहीत्वा यत्रैव शब्दापातिविकटापातिपर्याया वृत्तवैताट्यपर्वतास्तत्रैव उपागसव्वगंधे सव्वोसहिसिद्धत्थए गिण्हंति ) तथा समस्त ऋतुओंके सुन्दर पुष्पोंको, समस्त गंध द्रव्योंको एवं सौषधियोंको एवं सिद्धार्थकोंको लिया (गिण्हित्ता जेणेव पउमपुंडरीयदहे तेणेव उवागछंति ) फिर वे वहांसे इन सबको लेकर जहां पद्म एवं पुण्डरीकहद था वहां पर आये-(उवागच्छित्ता दहोदगं गेहंति गेण्हित्ता जाई तत्थ उप्पलाई जाव सयसहस्सपत्ताई ताई गेहंति, गेण्हिता जेणेव हेमवयएरवयाई वासाई जेणेव रोहियरोहियंसा सुवण्णकूल-रूप्पकूलाओ महाणईओ तेणेव उवागच्छंति ) वहां आकरके उन्होंने इन हृदोंसे उदक भरा, उदक भरकर फिर उन्होने वहां पर जितने भी उत्पल यावत् शतसहस्रपत्रवाले कमल थे उन सबको लिया इन सबको लेकर फिर वे जहां हैमवत और ऐरवत क्षेत्र थे, जहां रोहित, रोहितांसा, सुवर्णकूला एवं रूप्यकूला नामकी महानदियां थीं वहां पर आये ( सलिलोदगं गेहंति ) वहां आकर उन्होंने वहांसे सलिलोदक ( जल ) भरा, (गेण्हित्ता उभयओ कूलमट्टियं गिव्हंति) भरकर फिर उन्होंने वहांसे दोनों तटोंकी मृत्तिका ली, (गिण्हत्ता जेणेव सद्दावइ बियडावइ परियागा बट्टवेयड्ढपव्वया तेणेव भने सवैषिधिमान मने सिद्धाने दीघi. (गिण्हित्ता जेणेव पउमपुंडरीयदहे तेणेव उवागच्छंति ) ५छी तेथे त्यांची म! मधी वस्तुमान बने या ५ मन पुरी ४४-५२। तो, त्यां गया. ( उवागच्छित्ता दहोदगं गेहंति जाइ तत्थ उप्पलाइ जाव सयसहस्सपत्ताइ ताई गण्हंति, गेण्हित्ता जेणेव हेमवयएरवयाई वासाई जेणेव रोहियरोहियंसा सुवण्णकूल-रुप्पकूलाओ महाणइओ तेणेव उवागच्छंति) ત્યાં જઈને તેમણે તે હદમાંથી ઉદકભર્યું ઉદકભરીને પછી તેમણે ત્યાં જેટલા ઉત્પલોયાવત્ શતસહસ્ત્ર પત્રવાળા કમળે હતાં, તે સર્વ લઈ લીધાં ત્યારબાદ તેઓ જ્યાં હૈમવત અને એરવત ક્ષેત્ર હતાં જ્યાં રોહિત, રોહિતાંસા, સુવર્ણકૂલ मन सुरुपयसा नामनी महानही ती त्यां गया. (सलिलोदगं गेहंति) त्यां पडेयाने तेभारे तमाथी सलिलमयु". (गेण्हित्ता उभयओ कुलमट्टियं गिण्हंति) सरीने ५७. तेभारे त्यांची मने नियानी माटी सीधी. (गिण्हित्ता जेणेव શ્રી રાજપ્રક્ષીય સૂત્રઃ ૦૧
SR No.006341
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1990
Total Pages718
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size39 MB
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