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________________ सुबोधिनी टीका. सूर्याभस्यामलकल्पास्थितभगवद्वन्दनादिकम् । अञ्जलिं कृत्वा एवं देवस्तथेति आज्ञाया विनयेन वचनं प्रतिश्रृण्वन्ति, प्रतिश्रुत्य उत्तरपौरस्त्यं दिग्भागम् अवक्रामन्ति, अवकम्य वैक्रियसमुद्घातेन समवहन्यन्ते. समवहत्य संख्येयानि योजनानि दण्डं निसृजन्ति, तद्यथा-रत्नानां वज्राणां वैडूर्याणां लोहिताक्षाणां मसारगल्लानां हंसगर्भाणां पुलाकानों सुगन्धिकानां से आज्ञापित हुए वे आभियोगिक देव हर्षित एवं संतुष्ट यावत् हृदयवाले हुए उन्होंने उसी समय दोनों हाथोंकी दशों नख आपसमें मिल जावे ऐसी अञ्जलिं बनाकर और उसे मस्तक ऊपर फिराकर आप जैसा कहते हैं-हम वैसा ही करेंगे इस प्रकारसे उसकी आज्ञाके वचनको बडे विनयके साथ स्वीकार किया ( पडिसुणित्ता उत्तरपुरत्थिमं दिसिभागं अवकमति ) स्वीकार करके फिर वे लोग ईशान कोनेमें चले गये (अवक्कमित्ता वेउब्वियसमुग्धारण समोहणंति ) वहां जाकरके उन लोगोने वैक्रिय समुद्घात करके अपने आत्मा के प्रदेशोंको संख्यात योजनतक दण्डरूपमें बाहर शरीर निकाला ( तंजहा) जो इस प्रकारसे है (रयणाण, वयराण, वेरुलियाणं लोहियक्खाणं मसारगल्लाणं, हंसब्भाणं, पुलगाणं सोगंधियाण जोइरसाणं अंजनपुलगाणं अंजणाणं रयणाण, जायरूवाणं अंकाणं, फलिहाणं रिट्टाणं, अहा बायरे पुग्गले परिसाडंति) इस समुद्घातमें उन्होंने रत्नांके, वज्रोंके वैडूयोंके लोहिताक्षोंके मसारगल्लोंके हँसग के पुलाकोंके-मणिविशेषोंके सौगन्धिकोंके, ज्योतीरसों થયેલો તે આભિગિક દેવ હર્ષિત અને સંતુષ્ટ યાવત્ પ્રસન્ન હૃદયવાળા થયા. તેમણે તે જ સમયે બંને હાથોની, દશેદશનો પરસ્પર જોડાઈ જાય તે રીતે અંજલી બનાવીને અને તેને મસ્તક ઉપર ફેરવીને તમે જેમ કહો છો, અમે તે प्रमाणे ॥ ४रीशु. 240 शत माज्ञाना क्यनने ५०५४ विनम्रपणे स्वी'. (पडि. सुणित्ता उत्तरपुरस्थिमं दिसिभागं अवक्कमति ) स्वारीने ते त्यांथी शान मindu R@1. ( अवक्कमित्ता वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहणंति ) ni न त डोमे वैष्ठिय समुद्धात . (समोहणित्ता संखेज्जाइ जोयणाइ दंडं निसिरंति) वैठिय સમુદ્ધાત કરીને પોતાના આત્માના પ્રદોશોને સંખ્યાત યેાજન સુધી દંડરૂપમાં शरीरमाथा १९६२ ४९या ( तजहा) तेनु वर्णन 40 प्रमाणे छ:-(रयणाण वयराण, वेरुलियाणं लोहियक्खाणं मसारगल्लाणं हंसगब्भाणं पुलगाणं सोगंधियाण जोइरसाणं अंजनपुलगाणं अंजणाणं रयणाणं, जायरूवाणं अकाणं, फलिहाणं, रिट्ठाण, अहा बायरे पुग्गले परिसाडंति ) मा समुद्धातमा तेभ २त्नाना, जेना, वैयोना, बोडिताक्षोना, मसा२यो, सम' શ્રી રાજપ્રશ્રીય સૂત્રઃ ૦૧
SR No.006341
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1990
Total Pages718
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size39 MB
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