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________________ ५०८ राजप्रश्नीयसूत्रे रत्नसुरभिकुसुमफलभरभृतनतशाला अधिकं नयनमनोनिवृतिकराः अमृतरससरसफलाः सच्छायाः सप्रभाः सश्रीकाः सोद्योताः प्रासादीया दर्शनीया अभिरूपाः प्रतिरूपाः। तेषां खलु चैत्यवृक्षाणाम् उपरि अष्टाष्ट मङ्गलकानि ध्वजाः मयरयणविविहसाहप्पसाहवेरुलियपत्ततवणिजपत्तविंटा) इन चैत्यवृक्षों के मूलभाग वज्ररत्नमय हैं. विडिमा-इनके मध्यभाग से ऊपरकी और निकली हुई सुन्दराकारवाली शाखाएँ रजतमय हैं इनके कन्द विशाल और रिष्टरत्नमय हैं स्कन्ध इनके वेड्य रत्नमय हैं और मनोहर है. इनके स्कन्धों की शाखाएँ विशाल है. एवं शोभनजातीय सुवर्णकी बनी हुई है. इनकी शाखाएँ एवं प्राशाखाएं अनेक प्रकारके मणियों एवं रत्नों की बनी हुई हैं. इनके पत्र वैडूर्य रत्नमय है. पत्रोंक वृन्त-डन्टल तपनीयस्वर्णमय हैं (जंबूणयरत्तमउयसुकुमालपवालपल्लववरंकुरधरा, विचित्तमणिरयणसुरभिकुसुमफलभरभरियनमियसाला, अहियं नयणमणनि व्बुइकरा अमयरससरसफला) जाम्बूनद नामकविशिष्ट सुवर्ण के, कोमल, लाल, सुकुमारस्पर्शवाले इनके प्रवाल है, पल्लव हैं, और प्रथमउद्भिद्यमान अड्डर हैं। इनकी शाखाएं अनेक प्रकार के मणियों के एवं रत्नों के सुगंधित पुष्पों से एवं फलों से खूब लदी हुई हैं. अतएव नम्रीभूत हैं. नेत्रों को एवं मनको ये वृक्ष बहुत आनन्द, देते हैं अमृतरस के जैसा रस इनके फलोंमें भरा हुआ है ( सच्छाया, सप्पभा, सस्सिरीया, सउज्जोया, पासाईया, दंसणिज्जा, अभिरूवा पडिरूवा ) इनकी छाया बडी सुन्दर खंधा, सुजायवरजायरूवपढ़मगविसालसाला णाणामणिमयरयणविविह साहप्पसाहवेरूलियपत्ततवणिज्जपत्तविंटा) । थैत्यक्षाना भू मा १२त्नमय छ. विडिभा-समान। મધ્યભાગથી ઉપરની તરફ નીકળેલી સુરાકારવાળી શાખાઓ રજતમય છે. એમના કદી વિશાળ અને રિછરત્નમય છે. સ્કંધ એમના વિર્યરતનમય છે અને મનહર છે. એમના સ્કીધેની શાખાઓ વિશાળ છે, અને શોભનજાતીય સુવર્ણની બનેલી છે. એમની શાખાઓ તેમજ પ્રશાખાઓ ઘણી જાતનાં મણિઓ અને રત્નોની બનેલી છે. એમનાં પાંદડાઓ વૈર્યરત્નમય છે. પાંદડાઓનાં વૃક્તા (દીંટાઓ) तपनीय सुप भय छे. (जंबूणयरत्तमउयसुकुमालपवालपल्लववरंकुरधरा, विचित्तमणिरयणसुरभिकुसुमफलभरभरियनमियसाला, अहियं नयणमणनिव्वुइकरा अमयरससरसफला) ४ भून नामाना विशेष सुवरी ना, सुमित, तर सुमा२ २५शवाणा એમના પ્રવાલો છે, પલ્લવ છે અને પ્રથમ ઉભિધમાન અંકુર છે. એમની શાખાઓ ઘણી જાતના મણિએ અને રત્નનાં સુગંધિત પુષ્પથી અને ફળેથી ખૂબ વ્યાપ્ત થઈ રહી છે. એથી નમ્ર થઈ રહી છે. નેત્રોને તેમજ મનને એ વૃક્ષો ५g४ भान मापे छ. मेमन जोमा अमृत ! २ सय . ( सच्छाया, શ્રી રાજપ્રક્ષીય સૂત્રઃ ૦૧
SR No.006341
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1990
Total Pages718
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size39 MB
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