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________________ राजप्रश्नीयसूत्रे अनुप्रविष्टः ? गौतम शरीरं गतः शरीरमनुप्रविष्टः । स केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते शरीरं गतः शरीरमनुप्रविष्टः । गौतम ! यथानामकः कटाऽऽकार शालास्यात् द्विधातो लिप्ता गुप्ता गुप्तद्वारा निवाता निवातगम्भीरा तस्याःखलु कूटाऽऽकारशालायाः अदूरसामन्ते अत्र खलु महानेको जनसमूहस्तिष्ठति, भदन्त! सूर्याभदेवकी यह दिव्य देवद्धि, दिव्य देवद्युति, और दिव्य देवानुभाव कहां गया ? कहां अनुप्रविष्ट हो गया ? इसके उत्तरमें प्रभुने उनसे कहा-(गोयमा ! सरीरं गए सरीरं अणुप्पचिट्ठ) हे गौतम ! सूर्याभदेवकी यह दिव्य देवर्द्धि देवद्युति और दिव्य देवानुभाव उसके शरीरमें चला गया है, उसके शरीरमें प्रविष्ट हो गया (से केणट्ठणं भंते ! एवं बुच्चइ-सरीरं गए, सरीरं अणुप्पविद्वे) हे भदन्त । ऐसा आप किस कारणसे कहते हे कि सूर्याभदेवकी दिव्य देवर्द्धि आदि सव उसके शरीर गत हो गये हैं उसके शरीरमें प्रविष्ट हो गया है ? ( गोयमा) हे गौतम ! ( से जहानागए कूडागारसाला सिया दुहओ लित्ता गुत्ता गुत्तदुवारा णिवाया णिवायगंभीरा) जैसे कोई एक कूटाकारशाला हो, और वह दोनों ओर मीतर बाहरमें गोमयादि से लिप्त हो, बाहरमें उसके चारों ओर कोट हो, कपाटसे वह आवृत द्वारवाली हो, तथा जिसमें पवनका प्रवेश न होसके ऐसी वह बहुत गंभीर हो ( तीसेण कूडागारसालाए अदूरसामंते एत्थणं महं एगे जणसमूहे चिट्ठइ ) उस હે ભદંત! સૂર્યાભદેવની આ દિવ્ય દેવઘુતિ અને દિવ્ય દેવાનુભાવ ક્યાં અદશ્ય થઈ ગયાં? ક્યાં અનુપ્રવિષ્ટ થઈ ગયા ? એના જવાબમાં પ્રભુએ કહ્યું કે – (गोयमा ! सरीरं गए सरीरं अणुप्पविदे) ले गौतम! सूर्याभवनी मा हिव्य દેવદ્ધિ દેવઘુતિ અને દિવ્ય દેવાનુભાવ તેનાં શરીરમાં જતા રહ્યાં છે, તેનાં शरीरमा प्रविष्ट 25 या छ. ( से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-सरीरं गए, सरीरं अणुप्पविढे ) महत ! सा५श्री ५२५थी साम । छ। सूर्यामदेवना दिव्य वर्द्धि वगेरे सौ तेना शरीरमा प्रविष्ट २७ गया छ ? ( गोयमा ) ले गौतम ! (से जहानामए कूडागारसाला सिया दुहओ लित्ता गुत्ता गुत्तदुवारा णिवाया णिवायगंभीरा ) भ ई मे डूटार शाहीय मने ते माने त२५ मेटो કે અંદર અને બહાર છાણ વગેરેથી લીધેલી હોય, તેની ચારે તરફ દીવાલ હોય અને કમાડથી તે આવૃત દ્વારવાળી હોય એટલે કે બારણું વાસેલું હોય તેમજ मा ५वन प्रवेश शत। न य मेवी ते पडु २८ भा२ ।य ( तीसेणं कूडागारसालाए अदूरसामंते एत्थणं महं एगे जणसमूहे चिढइ ) ते टा॥२ शाकानी પાસે બહુ દૂર પણ નહિ અને બહુ પસે પણ નહિ યોગ્ય સ્થાને જનસમૂહ શ્રી રાજપ્રક્ષીય સૂત્રઃ ૦૧
SR No.006341
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1990
Total Pages718
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size39 MB
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