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राजप्रश्नीयसूत्रे अनीकैः सप्तभिः अनीकाधिपतिभिः षोडशभिः आत्मरक्षकदेवसाहस्रीभिः अन्यैश्च बहुभिः सूर्याभविमानवासिभिः वैमानिकैः देवैश्च देवीभिश्च साधू संपरिवृतः महता आहतनाट्यगीतवादिततन्त्रीतलतालत्रुटितघनमृदङ्गपटुप्रवादितरवेण दिव्यान् भोगभोगान् भुञ्जानो विहरति । इमं च खलु केवलकल्पं जम्बूद्वीपं द्वीपं विपुलेनावधिना आभोगयन् २ पश्यति ॥ सू० २ ॥ देवों के साथ ( सपरिवाराहिं चउहिं अग्गमहिसीहिं) परिवारसहित चार अग्रमहिषियों के साथ (तिहिं परिसाहिं ) तीन परिषदाओं के साथ ( सत्तहिं अणिएहिं ) सात अनीक-सैनिकों के साथ । सत्तहिं अणियादिवई हिं) सात अनीकाधिपतियों के साथ ( सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं ) १६ हजार आत्मरक्षक देवों के साथ तथा और (अन्नेहि य बहूहिं सूरियाभविमाणवासीहिं वेमाणिएहिं देवेहि य देवीहिंय सर्द्धि संपरिबुडे ) भी अनेक दूसरे सूर्याभविमानवासी वैमानिक देवों एवं देवीयों के साथ परिवृत हुआ (महया आहयनट्टगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडुप्पवाइयरवेण) अनुरूप वादित नाटयगीतों के बाजों की तथा निपुणदेवों द्वारा बजाये गये तन्त्री, तल, ताल त्रुटित धनमृदङ्गों की जोर २ की ध्वनिपूर्वक (दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे ) दिव्य भोगों को भोगता हुआ अपना समय व्यतीत कर रहा था ( इमंच णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं विउलेणं ओहिणा आभोएमाणे २ पासइ) तथा केवलकल्प सम्पूर्ण-जंबूद्वीप नामके इस द्वीप को विपुल अवधिज्ञान द्वारा वह उपयोग देता हुआ देख रहा था । ७५२ (चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं ) या२ २०१२ सामानि हेवानी साथे (सपरिवाराहिं चउहिं अगमहिसीहिं) पातपाताना परिवा२नी साथे या२ ५८२४ीयानी साथे ( तिहिं परिसाहि) ३५ परिषदायानी साथे ( सत्तहिं अणिएहिं) सात मनी-सैनि-नी साथे (सत्तहिं अणियाहिवईहिं) सात मनीधिपतिमानी साथे ( सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं) १६ ॥२ २मात्मरक्ष वानी साथे तेम४ मा (अन्नेहिं य बहहिं सूरियाभविमाणवासीहिं वेमाणिएहिं देवेहिं य देवीहिं य सद्धिं संपरिवुडे ) ५५ घाया सूर्याभविमानवासी वैमानि हेवे। अने. हेवीयानी साथे पीटा (महया आहय नट्टगीय-वाइय-तंती-तलताल-तुडिय-घण मुइंगपडुप्पवाइयरवेणं) मनु३५ वाहित नाटतानां मानी तमा નિપુણ દેવ વડે વગાડાયેલા તંત્રી, તલ, તાલ, ત્રટિત, અને ઘનમૃદંગના મોટા
पनि पूर्व (दिव्वाई भोगभोगाइ भुजमाणे विहरइ) हिव्य तेमन सेवा योग्य मागोन। पास ४२तो पोताना १मत ५सा२ ४री २हो तो. ( इमं चण केवलकप्प जंबुद्दीवदीवं विउलेण आभोएमाणे २ पासइ) तेम अस ४६५ સંપૂર્ણ જંબુદ્વીપ નામના આ દ્વીપને પિતાના વિપુલ અવધિજ્ઞાન વડે ઉપયોગ પૂર્વક જોઈ રહ્યો હતે.
શ્રી રાજપ્રક્ષીય સૂત્રઃ ૦૧