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________________ सुबोधिनी टीका. सू. १६ भगवद्वन्दनार्थं सूर्याभस्य गमनव्यवस्था कुसुममिति वा किंशुककुसुममिति वा पारिजातकुसुममिति वा जातिहिङ्गुलक इति वा शिलाप्रवालमिति वा प्रवालाङ्कर इति वा लोहिताक्षमणिरिति वा लाक्षारसक इति वा कृमिरागकम्बल इति वा चीनपिष्टराशिरिति वा रक्तोत्पलमिति वा रक्ताशोक इति वा रक्तकरवीर इति वा रक्तबन्धुजीव इति वा भवेद् एतद्रूपः स्यात् ? नो अयमर्थः समर्थः ते खलु लोहिता मणयः इत इष्टतरका एव यावद् वर्णेन प्रज्ञप्ताः || सू० १६ ॥ १४५ गोप होता है, बालदिवाकर होता हैं, ( संझन्भरागेह वा, गुंजद्धरागेइ वा, जासुअणकुसुमे वा ) संध्याराग होता है, गुंजार्द्धराग होता है, जपाकुसुम होता है । (किंकुसुमेह वा ) किंशुक कुसुम होता है, (पालियायकुसुमेड़ वा ) पारिजातक कुसुम होता है ( जाइहिंगुलेइ वा ) जातिहिंगुल होता है ( सिलपवाले वा ) शिलाप्रवाल होता है ( पवालअंकुरेइ वा ) प्रवाल अंकुर होता हैं (लोहियक्मणी वा, लक्खारसगेइ वा ) लोहिताक्षमणि होता है, लाक्षारस होता है, ( किमिराग कंबलेइ वा, चीणपिट्ठरासीइ वा रचुप्पले वा, रत्तासोगेइ वा रक्तकणवीरेह वा, रत्तबंधुजीवेह वा ) कृमिरागकम्बल होता है, सिन्दुरराशि का पुंजविशेष होता है रक्तोत्पल होता है, रक्ताशोकवृक्ष होता है, रक्त कनेर का वृक्ष होता है, अथवा रक्त बन्धुजीव होता है ? ( भवे mardant) इस तरह मणियों का वर्ण होता हैं ? ( णो इणट्ठे समट्ठे ) यह अर्थ समर्थ नहीं है । (तेणं लोहितामणी इत्तो इतराए चैव जाव वण्णेणं पण्णत्ता) क्यों कि वे रक्तमणि इनसे भी अधिक इष्ट ही यावत् वर्ण से कहे गये हैं, । (लुङ) नु रुधिर होय छे, महिष (पाडा) नु रुधिर होय छे, मावेन्द्रगोप होय छे, मासरवि होय छे, ( संझन्भरागेइ वा, गुंजद्धरागेइ वा, जासुअणकुसुमेइ वा ) सौंध्याराग होय छे. गुद्धराग होय छे, या कुसुम होय छे, (सिंसु य कुसुमेइ वा ) सूडाना पुष्यो होय छे, ( पालियायकुसुमेइ वा ) पारिन्नत (डारसिंगार ) नु पुष्य होय छे ( जाइहिंगुलेइ वा ) जति डिगुस होय छे, ( सिलप्पवालेइ वा ) शिलाप्रवास होय छे, ( पवाल अंकुरेइ वा ) प्रवास अङ्कुर होय छे, ( लोहियक्खमणीइ वा लक्खारसगेइ वा ) बोहिताक्षमणि होय छे, साक्षारस होय छे, ( किमिरागकंबलेइ वा, चीणपिट्ठरासीइ वा रत्तुप्पलेइ वा, रत्तासोगेइ वा, रत्तक - वीरेइ वो, रत्तबंधुजीवेइ वा ) भिराग उमस होय छे, सिंदुर राशिना पुन विशेष होय छे, रक्त उत्पक्ष होय छे, रक्त अशोउवृक्ष होय छे, २४त (सास) उनेरनु वृक्ष होय छे. अथवा रक्त मधुलव होय छे. ( भवे एयारूवेसिया ) ते शुं मा प्रभाग ४ भजियानो वलु सास होय छे ? ( णो इणट्टे समट्ठे ) मा अर्थ समर्थ थी. (ते लोहियामणी इत्तो इट्ठतराए चेव जाव वण्णेणं पण्णत्ता ) भ રક્તમણિએ એમના કરતાં પણ વધારે ઇષ્ટ યાવત્ વ વાળા કહેવામાં આવ્યા છે. શ્રી રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર : ૦૧
SR No.006341
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1990
Total Pages718
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size39 MB
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