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________________ १०० राजनीयसूत्रे अश्रुतानि श्रोष्यामः श्रुतान् अर्थान् हेतून् प्रश्नान् कारणाणि व्याकरणानि प्रक्ष्यामः, अप्येकके सूर्याभस्य देवस्य वचनमनुवर्तमानाः, अप्येकके अन्योन्या नुवर्तमानाः, अप्येकके जिनभक्तिरागेण, अप्येकके धर्म इति अप्येकके जीतमेतदिति कृत्वा सर्व यावत् अकालपरिहीनमेव सूर्याभस्य देवस्य अन्तिके प्रादुर्भवन्ति ।। ० १० ॥ अश्रु के निमित्त को लेकर, इसी प्रकार कितनेक सन्मान करने के निमित्त को लेकर, कितनेक कौतूहल देखने के निमित्त को लेकर ( अप्पेगइया असुयाई सुणिसाम सुयाई अड्डाई हेऊई परिणाई कारणाई वागरणाहं पुच्छि स्सामो ) कितने अत अर्थको सुनेंगे और श्रुत अर्थको हेतुओं, प्रश्नों कारणों और व्याकरणों को लेकर पूछेंगे, ऐसे अभिप्राय को लेकर ( अप्पेगइया, सूरियाभस्स देवस्स वयणमणणुवत्तमाणा अप्पेगइया अन्नमन्नमणुवत्तमाणा, अप्पेगइया जिणभत्तिरागेणं. अप्पेगइया धम्मोति अप्पेगइया जीयमेयं सब्बिड्डीए जाव अकालपरिहीणं चैव सरियाभस्स देवस्स अंतिए पाउन्भवंति ) कितनेक सूर्याभदेव की आज्ञा है इसलिये हमें जाना चाहिये इस बातको लेकर कितनेक दूसरे देव जा रहे हैं इस लिये हमें भी जाना चाहिये. इस कारण को लेकर कितनेक जिनभक्ति के राग को लेकर कितनेक यह हमारा धर्म है. इस भाव को लेकर कितनेक यह हमारा जीत नाम का कल्प हैं इस अभिप्राय को लेकर सर्वद्धि - परिवारादि रूप सम्पत्ति से संपरिवृत होते हुए यावत् विना किसी विलम्ब के शीघ्रातिशीघ्र सूर्याभदेव के पास आगये. भजशे ते सई ने - ( अप्पेगइया असुयाई सुणिस्सामो, सुयाई अट्ठाई हेऊई पसिणाई करणाई वागराणाई पुच्छिरसामो ) डेटला अश्रुत अर्थने सांलणीशु भने શ્રુત અને હેતુઓ, પ્રશ્નો, કારણેા અને વ્યાકરણાને લઈને પૂછીશું, આ અભિआयनी साथै ( अप्पेगइया, सूरियाभस्स देवस्स वयणमणुवत्तमाणा, अप्पेगइया अन्नमन्नमणुवत्तमाणा, अप्पेगइया जिणभत्तिरागेणं, अप्पेगइया धम्मोत्ति अप्पेगइया जीययत्तिक सव्विड्ढी जाव अकालपरिहीणं चेव सूरियाभस्स देवस्स अंतिए पाउब्भवंति ) डेंटला सूर्याल हेवनी आज्ञा छे भेटला भाटे वु लेई मे या वालने લઈને કેટલાક ખીજા દેવા જઈ રહ્યા છે એટલા માટે અમારે પણ જવું જોઇએ આ કારણને લઈને, કેટલાક જિન ભક્તિપ્રત્યે શ્રદ્ધાવાન થઈને, કેટલાક—આ અમારા ધર્મ છે, આ ભાવને લઈને કેટલાક આ અમારૂ જીત નામે કલ્પ છે આ કારણને લીધે, સદ્ધિ—પરિવાર વગેરે રૂપ સપત્તિથી સ’પરિવૃત્ત થઈ ને ચાવત્ કોઈ પણ જાતના વિલંબ વગર એકદમ સૂર્યાભદેવની પાસે પહેાંચી ગયા. શ્રી રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર : ૦૧
SR No.006341
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1990
Total Pages718
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size39 MB
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