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________________ विपाकश्रुते वर्णनं मायः समानमस्तीत्यर्थः। तानि दशाध्ययनान्यपि दशस्वेव दिवसेद्दिश्यन्ते, इति भावः / 'सेस' शेष शेषवर्णनं 'जहा आयारस्स' यथाऽऽचारस्य- आचारागसूत्रस्य तथा विज्ञेयम् // // इति श्री-विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-मसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मायक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहूच्छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त- जैन शास्त्राचार्य '-पदभूपित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलाल वतिविरचितायां विपाकश्रुते द्वितीयश्रुतस्कन्धस्य विपाकचन्द्रिकाख्यायां एकादशमङ्गं समाप्तम् ___सम्पूर्णम् // 11 // // इति विपाकश्रुतं समाप्तम् // वांचे जाते है / 'सेसं जहा आयरस्स' शेष वर्णन ' आचारांग सूत्र की तरह समझना चाहिए। 'एकारसमं अंगं समत्तं' 11 वां अंग विपाकश्रुत समाप्त हुवा। // इस प्रकार विपाकश्रुत के विपाकचन्द्रिका टीका का हिन्दी-भाषानुवाद संपूर्ण हुवा // श्रुत२४ ६-४स (10-10) सिमां पांयामा भावे छे. 'सेसं जहा आयरस्स' माडीनु पर्जुन माया सूत्र प्रभारी सभ से ' एकारसमं अंगं समत्तं ' 11 અગીઆરમું અને વિપકડ્યુત સમાપ્ત થયું. “આ પ્રમાણે વિપાકકૃતના વિપાકચન્દ્રિકા ટીકાને “ગુજરાતી ભાષાનુવાદ સંપૂર્ણ થયે છે શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
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