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________________ ७०० विपाकश्रुते 'जोणीमूलं' योनिशुलम् 'उवसामित्तए' उपशमयितुम्, परन्तु 'णो संचाएंति' नो शक्नुवन्ति 'उवसामित्तए' उपशमयितुं नाशक्नुवन्नित्यर्थः । 'तए णं ते बहवे' ततः खलु ते बहवः 'विज्जा य६' वैद्याश्च६ 'जाहे' यदा ‘णो संचाएंति' नो शक्नुवन्ति 'अंजूए देवीए' अज्या देव्याः 'जोणीमूलं' योनिशूलम् 'उपसामित्तए' उपशमयितुम्, 'ताहे' तदा 'संता' श्रान्ताः-श्रमातुराः, 'तंता' तान्ताः खिन्नाः 'परितंता' सर्वथा खिन्नाः योगिशूलं निवारयितुमसमर्थाः सन्तः, 'जामेव दिसं पाउन्भूया' यस्या एव दिशः प्रादुर्भूताः, 'तामेव दिसं पडिगया' तामेव दिशं प्रतिगताः परावृत्य स्वस्वग्रहं गता इत्यर्थः । 'तए णं सा अजूदेवी' 'ततः खलु सा अजूदेवी 'ताए वेयणाए' तया वेदनया 'अभिभूया समाणी' अभिभूतापीडिता सती 'मुक्का' शुष्का शोणितापचयात् 'भुक्खा' बुभुक्षिता-अन्नादेररुचिसद्भावात् 'णिम्मंसा' निमासा-मांसापचयात्, एतादृशी सती 'कट्ठाई' अंजू देवी के प्रादुर्भूत योनिशूल को शमन करने के लिये उपाय किये परन्तु 'णो संचाएंति उवसामित्तए' वे अपने उपायों में सफलप्रयत्न नहीं हुए । 'तए णं ते बहवे विज्जा य६ जाहे णो संचाएंति अंजूए देवीए जोणीमुलं उवसामित्तए ताहे संता तंता जामेव दिसं पाउब्भूया तामेव दिसंपडिगया' जब इनको यह निश्चय हो चुका कि अंजूदेवी का यह योनिशूल हमारे द्वारा शान्त नहीं हो सकता है, तब ये सब के सब श्रान्त और तान्त होते हुए जो जहां से आये थे वहां गये । 'तए णं सा अंजूदेवी ताए वेयणाए अभिभूया समाणी सुक्का भुक्खा णिम्मंसा कट्ठाई कलुणाई वीसराई विलवइ' वैद्यों के द्वारा परित्यक्त हुई वह अंजूदेवी उस वेदना से अब अत्यंत पीडित होने लगी। मारे कष्ट के यह बिलकुल सूक गई । शरीर આ ચાર પ્રકારની બુદ્ધિથી પકવ–બનીને અંજૂદેવીને થયેલા નિ ફૂલ રોગનું શમન ४२१। माटे पाये ४ा ५२न्तु, णो संचाएंति उवसामित्तए' ते पोताना भां सता पाभ्या नही. 'तए णं ते बहवे विज्जा य६ जाहे णो संचाएंति अंजुए देवीए जोणीमूलं उवसामित्तए ताहे संता तंता जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया' न्यारे ते सौ वैद्योने निश्चय थयो मनुवान से योनीत રેગ અમારાથી શાંત થઈ શકવાને નથી ત્યારે તે તમામ થાકી ગયા અને જે જે સ્થળેથી माया ता ते ते स्थणे पाछ। याया गया. 'तए णं सा अंजू देवी ताए वेयणाए अभिभूया समाणी सुक्का भुक्खा णिम्मंसा कट्ठाई कलुणाई वीसराइं विलवई' વૈદ્યોએ જ્યારે અંજીદેવીને રેગી તરીકે છેડી દીધાં પછી તે અંજવી ગની પીડાથી દુ ખ પામવા લાગ્યાં, અને રોગના કારણે પીડા થવાથી સુકાઈ ગયાં અને તેના શરી શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
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