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________________ विपाकचन्द्रिका टीका श्रु० १, अ० ८, शौर्यदत्तवर्णनम् तटं 'गाहिति' गाहन्ते-आनयन्ति । 'कूलं गाहित्ता' ग्राहित्वा-आनीय 'मच्छखलए' मत्स्यखलान् मत्स्यानां-खलान्-राशीन् ‘करेंति' कुर्वन्ति, करित्ता' कृत्वा 'आयवंसि' आतपे 'दलयंति' ददति । 'अण्णे य' अन्ये च 'से' तस्य शौर्यदत्तस्य 'बहवे पुरिसा दिनभयिभत्तवेयणा' बहवः पुरुषा दत्तभृतिभक्तवेतनाः 'आयवतत्तेहिं आतपतप्तैः आतपशुष्कैः ‘मच्छेहि' मत्स्यैः कीदृशैस्तैः १ 'तलिएहि य' तलितैः, 'भज्जिएहि य' भर्जितैः 'सोल्लिएहि य' शौल्यैः शूलपक्चैश्च ‘रायमग्गंसि' राजमार्ग 'वित्ति' वृत्तिम्-जीविकां 'कप्पेमाणा, कल्पमानाः कुर्वन्तो 'विहरंति' विहरन्ति । 'अप्पणावि य णं' आत्मना स्वयमपि च खलु 'से सोरियदत्ते' स शौर्यदत्तः 'बहुहिं' बहुभिः ‘सण्हमच्छेहि य' श्लक्ष्णमत्स्यैः 'जाव 'गिण्डित्ता' पकड कर एगठियाओ भरेंति' उन्हें वे सब नौका में डालते जाते । जब नौका भर जाती, तब वे 'भरित्ता कूलं गाहिति' उस भरी हुई नौका को तीर पर ले आते। 'कूलं गाहित्ता मच्छखलए करेंति' तीर पर ला कर वे सब उन मछलियों का एक ढेर करते ‘करित्ता आयवंसि दलयंति' ढेर करने के बाद वे उन्हें धूप में फैला कर सुखा देते । 'अण्णे य से बहवे पुरिसा दिण्णभइमत्तवेयणा' कुछ पुरुष उसके पास इस बात की भी नौकरी आदि पाते थे जो उन सुकाई गई मछलियों को 'आयवत्तेहिं मच्छेहि तलिएहि य भज्जिएहि य सोल्लिएहि य' धूपमें सुका हुवा मच्छोको तैल से तलते थे, भुंजते थे और शूलों द्वारा पकाते थे, फिर बाद में उन्हें 'रायमग्गंसि' राजमार्ग में रख कर बेंचते थे, और इस प्रकार 'वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति' अपनी जीविका चलाते थे । 'अप्पणावि य णं से सोरियदत्ते बहुर्हि सहभरेंति' तेने पोताना भी नामता ता ता. न्यारे तेमार्नु पहा मरा तुं त्यारे ते 'भहित्ता कूलं गाहिति' मरेसा पाणने नहीना id a nता उता, 'कूलं गाहित्ता मच्छखलए करेंति' हे सावीन ते पाएमाथी माछवी मार ४ाढीने ढसा ४२ता त. 'करित्ता आयवंसि दलयंति' ढसा शने पछी तने तमा पाडाजी रीने सूतो हता, 'अण्णे य से बहवे पुरिसा दिण्णभइभत्तवेयणा' मा पुरुषोतनी पासे थे आम भाटे पथ नारी ४२ता ता सुध reी भाभीमाने 'आयवत्तेहिं मच्छेहि तलिएहि य भज्जिएहि य सोल्लिएहि य' સુકાવેલા માછલાંને તેલમાં તળતા હતા, ભુંજતા હતા, અને શૂલી પર ચઢાવીને પકાવતા त. पछी तेने 'रायमग्गंसि' मा भाराभान वेयता उता, मन से प्रभारी 'वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति' पातानी मावि सावता ता ' अप्पणावि य ण से सोरियदने बहुहिं सहमच्छेहि य जाव पडागाइपडागेहि य तलिएहि य શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
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