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________________ ५९६ विपाकश्रुते कपित्थरसितानि च-कपित्थरससंस्कृतानि 'कपित्थ' कविठ' इति भाषाप्रसिद्धम्, 'दालिमरसियाणि य' दाडिमरसितानि च-दाडिमरससंस्कृतानि, 'मच्छरसियाणि य' मत्स्यरसितानि च-मत्स्यरससंकृतानि च । तथा 'तलियाणि य' तलितानि च तैलादिषु 'भज्जियाणि य' भर्जितानि च अङ्गारादिषु, 'सोलियाणि य' शोल्यानि च शूलपकानि शूले धृत्वा अङ्गारादिषु पकानि 'उवक्खडावेइ' उपस्कारयति संस्कारयति । 'अण्णे य बहवे' अन्यांश्च बहून् 'मच्छरसए य' मत्स्यरसान् 'एणिज्जरसए य' ऐणेयरसान-मृगमांसरसान तित्तिररसए य' तित्तिररसान् 'जाव' यावत्-वटेरादिरसान् मयूररसए य' मयूररसांश्च । तथा 'अण्णं च विउलं अन्य च विपुलं ‘हरियसागं' हरितशाकं हरितशाकजातं 'उक्करवडावेइ' उपस्कारयति, 'उवक्खडावित्ता' उपस्कार्य 'मित्तस्स रणो' मित्रस्य राज्ञः 'भोयणमंडवंसि' भोजनमण्डपे-भोजनस्थाने 'भोयणवेलाए' भोजनवेलायाम् 'उवणेइ' उपनयति कितनेक को दाखों के रस में, कितनेक को अनार के रस में और कितनेक को मछलियों के रस में पकने रख देता । 'तलियाणि य' कितनेक टुकडों को वह तैल से तलता, 'भज्जियाणि य' कितनेक को भूजता और कितनेक को "सोल्लियाणि य' लोहे के तकुए (शलाका) पर लटका कर अग्नि में सेकता। इस प्रकार वह श्रीक रसोइया इन सब मांस के टुकड़ों को 'उवक्खडावेई' अनेक प्रकार से पकाता था 'अण्णे य बहवे मच्छरसए य....उवक्खडावेइ' साथ में मछलियों के मांस के रस को, मृग के मांस के रस को, तीतर के मांस के रस को तथा वटेर आदि जानवरो से लेकर मयूर तक के मांस के रस को एवं और दूसरी अधिक मात्रा में शाक आदि तरकारी को भी पकाता था। 'उवक्खडावित्ता' सब को अच्छी तरह पका कर फिर वह पके हुए सामान को 'मित्तस्स रणो भोयणमंडवंसि भोयणवेलाए उवणेई' मित्र राजा આંબળાના રસમાં, કેટલાકને કઠાના રસમાં. કેટલાકને દ્રાક્ષના રસમાં, કેટલાકને અનારના २समा पा४१भाट रामपामा माता, सामान ते सध्या "तलियाणि य' तरम ततो तो, वाने 'भज्जियाणि य' भूतो, माइने 'सोल्लियाणि य' खोटाना शलाका' त्रा ५२ टावी मनिभा सेतो, मा प्रमाणे ते श्री सोध्यो ते तमाम मांसना टु४ामाने 'उवक्खडावे' मने प्रारे ५वत इतो. 'अण्णे य बहवे मच्छरसए य उवक्खडावेइ ' साथ-साथे भाजीमान भांसना રસને, મૃગમાંસના રસને, તેતરનાં માંસ રસને, તથા બટેર–એક પ્રકારનું પક્ષી આદિ જાનવરથી લઇને મોર સુધીનાં માંસરસને અને બીજાં અધિક માત્રામાં શાક-તરકારીને पा पावतो तो. ' उवक्खडावित्ता' तमामन सारी शत ५वी ते पछी ते पक्षी सामग्री 'मित्तस्स रणो भोयणमंडवंसि भोयणवेलाए उवणेइ' શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
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