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________________ विपाकचन्द्रिका टीका श्रु. १, अ. ७, उदुम्बरदत्तवर्णनम् 'पणामं करेइ' प्रणामं करोति-प्रणमति, प्रणामं 'करित्ता' कृत्वा 'लोमहत्थं ' रोमहस्तं मयूरपिच्छमार्जनीं 'परामुसई' परामृशति-स्पृशति गृह्णातीत्यर्थः । 'परामुसित्ता' परामृश्य-गृहीत्वा 'उंबरदत्तं जक्खं' उदुम्बरदत्तं यक्षं 'लोमहत्थएणं' रोमहस्तकेन ‘पमज्जइ' प्रमाष्टि-प्रमार्जयति-रजोऽपनयतीत्यर्थः, ‘पमजित्ता' प्रमाज्य-रजोऽपनिय ‘दगधाराए' दकधारया-उदकधारया 'अब्भुक्खेइ' अभ्युक्षति, 'अब्भुक्खित्ता' अभ्युक्ष्य ‘पम्हल' पम्हलमुकुमालाए 'गंधकासाइयाए' इति संग्राह्यम् । पक्ष्मलसुकुमारया-सुकोमलरोमवत्या गन्धकापायिकया-सुगन्धियुक्तकषायरङ्गरञ्जितशाटिकया सुगन्धिवस्त्रेणेत्यर्थः 'गायलहि' गात्रयष्टिं यक्षशरीरं 'ओल्हेई' अवरुक्षयति-शुष्कं करोति, प्रोञ्छतीत्यर्थः 'ओलूहित्ता' अवरूक्ष्य 'सेयाई वत्थाई' श्वेतानि वस्त्राणि 'परिहेइ' परिधापयति, 'परिहित्ता' परिधाप्य 'उवागच्छित्ता' यक्षायतन में पहुँचते ही उसने 'उंबरदत्तस्स जक्खस्स' ज्यों ही उदुम्बरदत्त यक्ष को 'आलोए' देखा त्यों ही 'पणाम करेइ' उसे प्रणाम किया। 'करिता लोमहत्थं परामुसइ' प्रणाम करने के अनन्तर उसने वहीं पर रखी हुई मयूरों के पंखों की बनी एक पीछी उठाई 'परामुसित्ता उंबरदत्तं जक्ख लोमहत्थएणं पमज्जइ उठा कर उसने उस उदुंबरदत्त का उस पीछी से प्रमार्जन किया । ‘पमज्जित्ता दगधाराए अब्भुक्खेइ' प्रमार्जन कर उसने जलकी धारा से उसका अभिषेक किया। 'अन्भुक्खित्ता पम्हल० गायलहिँ ओलूहेई' अभिषेक करने के अनन्तर उसने उस यक्ष के शरीर के जलकणों को एक ऐसे वस्त्र से साफ किया जो महीन, कोमल एवं सुगंधित कषाय रंग से रंगा हुआ था । 'ओलूहित्ता सेयाई वत्थाई परिहेइ' जब यक्ष के शरीर के जलकण बिलकुल शुष्क हो चुके, तब उसने फिर उसे सफेद वस्त्र पहिराये 'परिहित्ता जक्खस्स' यig२४त्त यक्षने 'आलोए' या ते मते 'पणामं करेइ' तने प्रथम पुर्या 'करित्ता लोमहत्थं परामुसई' प्रणाम ४ा पछी तेथे त्या माणसी भारना पीछानी मनेली मे पीछी सीधी. 'परामुसित्ता उबरदत्तं जक्ख लोमहत्थएणं पमज्जई' पीछीन तो ते महत्तन ते पीछी 43 प्रभान यु. “पमज्जित्ता दगधारया अब्भुक्खेइ' प्रभान रीने पछी धारा १3 तने मलिष यो. 'अन्भुक्खित्ता पम्हल० गायलहिँ ओल्हेइ' अभिषे ४ा पछी ते ते यक्षना शरीरનાં જલકને એક એવા વસ્ત્રથી સાફ કર્યા કે જે પાતલું, કમળ, અને સુગંધિત કષાય गथी गवत, 'ओलूहित्ता सेयाई पत्याइं परिहेइ'यारे यक्षना शरीरना rase] तमाम शु०४ 45 या, त्यारे तन श्वेत 4 पराव्यो, 'परिहित्ता महरिहं શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
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