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________________ ५३६ विपाकश्रुते वमन्तम् = मुखादुद्भिरन्तं 'कट्ठाई' कष्टानि कष्टकराणि, दर्शकजनमनोव्यथाजनकानि 'कलुणाई' करुणानि = करुणारसोत्पादकानि 'बीसराई ' विस्वराणि = दुःस्वराणि वचनानि 'कूयमाणं' कूजन्तम् = अव्यक्तमुच्चरन्तं शेषं प्रथमाध्ययनवत् - नवरं विशेषस्वयम्, 'मच्छियाच डगर पहगरेणं' मक्षिकाचटकर पहकरेण= मक्षिकाणां वृन्द-वृन्देन 'अणिज्जमाणमरगं' अन्वीयमानमार्गम्=अनुगम्यमानमार्गम् 'फुट्टहडाहडसीसं' स्फुटव्हडाहडशीर्ष = शिरोवेदनया व्यथितमस्तकं 'दंडिखंडवसणं' दण्डिखण्डवसनं = दण्डी = कन्थाधारी भिक्षुविशेषः तद्वत्खंडवस्त्रयुक्तं च, 'खंडमल्लखंडहत्थगयं' खण्ड मल्लखण्डहस्तगतम्=अशनपानार्थ शरावखण्डद्वययुक्तहस्तं ' गिहे२' गृहे गृहे = प्रतिगृहं 'देहवलियाए' देहवलिकया=देहनिर्वाहार्थं वलिका=आहारग्रहणं देहवलिका= भिक्षावृत्तिः, तया 'वित्ति' वृत्तिम् = आजीविकां ' कप्पेमाणं ' कल्पयन्तं = कुर्वन्तं 'पास' पश्यति । ' तयाणंतरं' तदनन्तरं 'भगवं गोयमे' भगवान् गौतमः 'उच्चणीय " रहा था । 'कट्ठाई कलुणाई वीसराई कूयमाणं' जो इस प्रकार के कष्टकारी दुःखद एवं करुणाजनक अव्यक्त शब्दों को बोल रहा था कि जिन्हें सुनकर हर एक व्यक्ति के मन में दया आती थी । 'मच्छियाचडगरपहगरेण अणिज्जमाणमग्गं' मक्खियों का झुण्ड का झुण्ड जिसके चारों ओर भनभन करता हुआ पीछेर चलता था 'फुट्टहडाहडसीसं भयंकर शिरकी पीडा से जिस का मानों माथा फूटा जा रहा था, 'इंडिखंडवसणं' कन्थाधारी भिक्षुकी तरह जो फटे हुए टाट के टुकडे ओढे हुए था । 'खंड मल्लखंडहत्थगमं' खाने और पानी पीने के लिये जिसने अपने हाथ में दो कपाल मिट्टीके वर्तन के टुकडे ले रक्खे थे और 'देहवलियाए वित्तिं कप्पेमाणं पास' शरीर निर्वाह के लिये घर घर भीख माँगता था उसको गौतम स्वामीने देखा । हतो, 'कट्ठाई कलुणाई वीसराई कूयमाणं' मा प्रमाणे ने पुष्टारी दुःस्वर अर्थात કરૂણાજનક અન્યકત શબ્દો બોલી રહ્યો હતા કે જેને સાંભળીને સૌ કેાઈ માનવ વ્યકિતને पोताना भनभां तेनी घ्या भावती हती, 'मच्छियाचडगर पह गरेण अण्णिज्ज माणमग्गं' માખીઓના ટોળાં જેનાં શરીરની ચારેય બાજુ ભણુ-ભણ કરતા તેની પાછળ ફરતા हता, 'फुट्ठहडाहर सीसं' माथानी लयं ४२ पीडाथी नेनु माथु छोटी क्तुं तु', " दंडिखंडवसणं ' उन्थाधारी लिक्षुनी भाईड झटेसा शगुना टुडडा मोढेसा हुता 'खंडमल्लखंडहत्थगयं' जावा-पीवा भाटे भेोगे पोताना हाथमां मे भाटीना वासना टुडा राजेसा हुता. भने ' देहवलियाए वित्तिं कप्पेमाणं पासइ ' शरीर निर्वाह માટે ઘેર-ઘેર ભીખ માગતા હતા. તેને ગૌતમ સ્વામીએ જાયે. શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
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