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________________ विपाकश्रुते सिरीभणणं' एकदा राजा तां पश्यति पृच्छति च । सा सर्व कथयति । 'तए णं से सिरिदामे राया तीसे बन्धुसिरीए देवीए तं दोहलं केणवि उवायेणं' ततः खलु स श्रीदामो राजा तस्या बन्धुश्रियो दोहदं केनाप्युपायेन अलक्षिततया स्वहृदयमांसस्थाने मांससदृशान्यवस्तुविशेषप्रदानरूपेण 'विणेइ' विनय ति= दोहदं पूरयति । 'तए णं सा बंधुसिरी देवी संपुण्ण दोहला५ तं गम्भं' ततः खलु सा बन्धुश्रीदेवी सम्पूर्णदोहदा ५ यावत् तं गर्भ 'सुहंसुहेणं' सुखसुखेन सुखपूर्वकं परिवहइ' परिवहति-धारयति स्म । 'तए णं सा' ततः खलु सा 'बन्धुसिरी देवी' बन्धुश्रीः देवी 'नवण्हं मासाणं' नवसु मासेषु 'बहुपडिपुण्णाणं' ग्रस्त शरीर वाली और हताश होती हुई 'झियाइ' आर्त ध्यान करने लगी। 'रायपुच्छा बंधुसिरीभणणं' ऐसी स्थिति में बैठी हुई उस बंधुश्री को एक समय राजा ने देखा और इस परिस्थिति का कारण पूछा। उस बंधुश्री ने अपना सब वृत्तांत राजा को कह सुनाया 'तए णं से सिरिदामे राया' तदनन्तर उस श्रीदाम राजा ने 'तीसे बंधुसिरीए देवीए दोहलं' उस बन्धुश्री देवी के उस दोहद को 'केणवि उवाएण' किसी एक उपाय से अर्थात् जिससे वह नहीं समझ सके इस प्रकार अपने हृदय मांस के स्थान पर मांस के सदृश अन्य वस्तु को देकर 'विणेई' पूरा किया । 'तए णं सा बंधुसिरी देवी' फिर वह बंधुश्री देवी ऐसा करने से 'संपुण्ण दोहला ५' दोहले के संपूर्ण होने पर, संमानित होने पर किसी वस्तु की अभिलाषा से रहित होकर 'तं गम्भं' उस गर्भ को "सुहं सुहेणं सुखपूर्वक 'परिवहई' धारण करने लगी। 'तए णं सा शाट शरास्त शरीरवाणी मने हताश मनाने 'झियाइ' मात ध्यान ४२१. सी. 'रायपुच्छा बंधुसिरीभणणं ' भावी स्थितिमा मेही ते मधुश्रीने मे समय રાજાએ જોઈ અને તે પરિસ્થિતિ થવાનું કારણ પૂછયું, ત્યારે તે બંધુશ્રીએ પોતાનો तमाम वृत्तान्त सने ही समायो 'तए णं से सिरिदामे राया' ते पछी श्रीहम समे, 'तीसे बंधुसिरीए देवीए दोहलं' ते मन्धुश्री वीना ते हो - साने (मनाथने) 'केणवि उवाएणं' ५५५ मे पायथा अर्थात् था ते સમજી શકે નહિ તેવી રીતે પિતાના હદયના માંસની જગ્યાએ માંસના જેવી જ भी १२तु आधीन 'विणेइ ' पूरे। ध्या. 'तए णं सा बंधुसिरी देवी' पछी ते मधुश्री हेवी मे प्रमाणे ४२वाथी 'संपुण्णदोहला ५' होडमा पूर्ण थता समानित थतां तेन पर वस्तुनी अलिसा ही न. 'तं गभ' गलने 'सुहंसुहेणं 'सुभपूर्व 'परिवहइ धा२९५ ४२१। सी. 'तए णं सा बंधुसिरी શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
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